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संवत्सरी महापर्व और अधिमास १११ बढ़ाकर पूरा कर दिया जाता है। आचार्य चाणक्य के उपर्युक्त कथन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे ज्येष्ठ-आषाढ़ और मार्गशीर्ष-पौष को ही मलमास के रूप में स्वीकृत करते हैं। उनका यह कथन जैन मान्यता का ही समर्थन करता है।
इस समय प्रायः सभी जैन परम्पराएं लौकिक पंचांग के अनुसार ही अधिमास तथा तिथियों का वृद्धि-क्षय मान्य करती हैं, अतः जब-जब श्रावण तथा भाद्रपद अधिमास होता है, तब-तब संवत्सरी महापर्व को मनाने में विभिन्न विकल्प हो जाते हैं। प्रत्येक विकल्प के पीछे जो क्रम और इतिहास रहा है, वह यदि सबके सम्मुख आए, तो एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने तथा उसमें समन्वय का मार्ग खोजने में सहायता मिल सकती है। तेरापंथ में जिस क्रम में संवत्सरी पर्व का तिथि-निर्णय किया जाता है, वह जयाचार्य के शब्दों में इस प्रकार हैमास में बीस दिवस बैसती चोमासी थी,
सित्तर दिन बलि पाछल राखी । समवायांग रै सित्तर समवाये,
संवत्सरी करणी जिन भाखी ॥३६।। कवे चौमास में तीन महीना गुणतीसा,
एक महीनों तीसो होय । एक सो सतरे दिन रो चौमासो,
किणहिक वर्ष बिजे आवै सोय ॥५०॥ जो गुण पच्चास दिन स्यूं करै संवत्सरी,
तो पाछला दिन अड़सठ रहै ताय । जो पाछला दिन गुणंतर राखै तो,
अड़तालीस दिन थी संवत्सरी थाय ॥५१॥ इम अड़तालीस दिन थी संवत्सरी न करणी,
दिन अड़सठ पिण नहि राखणा लार । गुणपच्चास अने गुणंतर दिन जोइए,
तिण रो किण रीत किजे सुविचार ॥५२॥ तो आषाढ़ सुद चौदस री करणी चोमासी,
पूनम रा दिन थी अवधार। गुण-पच्चास दिन थी संवत्सरी करणी,
इम दिवस गुणंतर राखणा लार ॥५३॥
१. अर्थशास्त्र, द्वितीय अधिकरण, अध्याय २०, श्लोक-७३, ७४
उदयवीर शास्त्रीकृत अनुवाद, पृष्ठ-२४५
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