________________
संवत्सरी महापर्व और अधिमास १०६
काल और भाव को अवश्य ही उन्होंने सम्मुख रखकर यह कार्य किया था, फिर भी वे विभिन्न प्रयत्न पृथक्-पृथक् इकाइयों को ध्यान में रखकर ही हो पाये; अत: वे सभी परम्पराएं सामष्टिक भावना के लिए साधक नहीं बन पायीं। अब यह प्रश्न सामूहिक चिन्तन के लिए सबके सम्मुख आया है। आचार्यश्री तुलसी ने बीकानेर (वि० सं० २०२१) चतुार्मास में इस विषय पर सामूहिक चिन्तन के लिए धुरीण व्यक्तियों का आह्वान किया था। सभी सम्प्रदायों के चुने हुए व्यक्ति सम्मिलित रूप से इस विषय पर चिंतन करें और एकरूपता के लिए उपयुक्त मार्ग निकालें, उससे पूर्व सांवत्सरिक पर्व की तिथि-भिन्नता और उसके कारणों पर विचार कर लेना भी सामयिक ही होगा। ___ सांवत्सरिक पर्व कब मनाया जाए, इस विषय में कहीं कोई स्पष्ट आगमिक विधान उपलब्ध नहीं होता। श्रमण भगवान महावीर के विषय में उल्लेख करते हुए समवायांग में केवल इतना विवरण दिया गया है कि उन्होंने वर्षाकाल के ५० दिन व्यतीत होने और ७० दिन अवशिष्ट रहने पर पर्युषण (संवत्सरी) पर्व किया।' कल्पसूत्र में भी ऐसा ही उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त निशीथ में असमय पर्युषण करने वाले तथा यथासमय पर्युषण न करने वाले श्रमण के लिए चातुर्मासिक दण्ड का विधान किया गया है।
तिथि गणना का आधार जैनों में जब तक आगमानुमोदित पद्धति के अनुसार चातुर्मास और तिथि-गणना का क्रम चालू रहा, तब तक पर्युषण की आराधना यथासमय और एकरूपता से चालू रही प्रतीत होती है। परन्तु जब से तिथि-गणना के लिए लौकिक पंचांग का आश्रय लिया जाने लगा, तब से व्यवस्था गड़बड़ा गयी और उसमें मतभेद प्रारम्भ हो गये । लौकिक पंचांग के अनुसार श्रावण और भाद्रपद आदि महीने भी अधिमास के रूप में आते हैं, जबकि जैन क्रम से वर्षा-काल का कोई भी मास अधिमास नहीं होता । वर्षा-काल में अधिमास होने पर चातुर्मास पांच महीने का होने लगा। उस स्थिति में पर्युषण-संवत्सरी के लिए पूर्व के पचास दिन और बाद के सत्तर दिनों का मेल बिठाना असम्भव हो गया । फलस्वरूप इस पर्व के विषय में अनेक परम्पराएं हो गईं । किसी ने पूर्व के ५० दिनों को महत्त्व दिया, तो किसी ने बाद के ७० दिनों
१. समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइ राइए मासे वइक्कते सत्तरिएहि राइंदिएहि सेसेहिं वासावासं पज्जोसविति।
-समवायांग ७० २. जे भिक्खू अपज्जो सवणाए ण पज्जोसवेइ, पज्जोसवंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेइ, ण पज्जोसवंतं वा साइज्जइ॥
-निशीथ, १०-४८, ४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org