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संवत्सरी महापर्व और अधिमास
अभेद की ओर अभियान जैन समाज के विभिन्न सम्प्रदायों में समन्वय की भावना जागरित हो और वे एकदूसरे के अधिकाधिक निकट आ सकें, ऐसा कोई भी उपक्रम अभिनन्दनीय होगा। विगत युग चाहे कितना ही पारस्परिक विभेद खोजने का क्यों न रहा हो, पर अब उसकी चिन्ता करना व्यर्थ है । अब तो आगत युग के विषय में ही सोचना तथा तैयारी करनी चाहिए कि उसमें कितना अभेद खोजा तथा स्थापित किया जा सकता है। अभेद की ओर अभियान करने के प्राथमिक चरणों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य होगा, पर्वो की एकरूपता । समग्र जैन समाज की दृष्टि से अब तक मुख्यतः दो पर्व ही ऐसे हैं, जिन्हें सर्वमान्य कहा जा सकता है। एक भगवान महावीर का जन्म-दिवस और दूसरा निर्वाण-दिवस । उनमें भी निर्वाण-दिवस दीपावली के रूप में अखिल भारतीय स्तर का एक सांस्कृतिक पर्व बन गया है । वह भगवान महावीर की निर्वाण-तिथि का ही एक मात्र प्रतीक नहीं रहा है। उसमें जैनों तथा अजैनों के अनेक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रतीक भी सम्मिलित हो गये हैं। तात्पर्य है कि इस समय का मात्र 'महावीर जयन्ती' का दिन ही ऐसा है, जिसे जैनों के सभी सम्प्रदाय एक साथ मनाकर अपने एकत्व को सुदृढ़ता प्रदान कर सकते हैं । विभिन्न परम्पराएं इसके अतिरिक्त 'संवत्सरी' को भी उसी कोटि का सर्वमान्य पर्व बनाया जा सकता है, क्योंकि वह दिन सभी श्वेताम्बरों द्वारा बहुमान्य पर्युषण पर्व की सम्पन्नता का दिन है, जबकि दिगम्बरों द्वारा बहुमान्य दश लाक्षणिक पर्व का प्रारम्भिक दिन । किन्तु इसके एकत्व में अनेक कठिनाइयां भी हैं। एक लम्बे समय से इसकी तिथिनिर्णय में परस्पर काफी भेद चला आ रहा है। कुछ समर्थ पूर्वाचार्यों ने एतद्विषयक तिथि-निर्णय के लिए अपने संघों में विभिन्न परम्पराएं स्थापित की थीं। उस समय वैसा करना निःस्सन्देह उनके लिए आवश्यक था। तत्कालीन द्रव्य क्षेत्र
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