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अक्षय तृतीया : एक महान् तप:पर्व १०३ राज-व्यवस्था की कल्पना उभरी और फिर नाभि के आदेश से ऋषभ को राजा घोषित किया गया ।
ऋषभ प्रथम राजा बने । उन्होंने अपने विशिष्ट ज्ञान के बल पर जीवनव्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने की योजना को कार्यान्वित करना प्रारंभ किया। गांवों और नगरों का निर्माण प्रारंभ हुआ । राजधानी के रूप में जो नगर बसा, उसका नाम 'विनीता' रखा गया । कालान्तर में उसे 'अयोध्या' कहा जाने लगा। लोग वनवासी संस्कारों से हटकर गृहवासी बनने लगे । सुख एवं समृद्धि के लिए पशु-पालन की पद्धति भी विकसित हुई । गायों, घोड़ों, और हाथियों का विशेष उपयोग होने लगा ।
राज ऋषभ ने प्रजा को संतानवत् पालना प्रारंभ किया। राज्य की सुव्यवस्था के लिए उन्होंने विभिन्न अधिकार संपन्न चार प्रकार के कुलों की स्थापना की । उनके नाम थे— उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय ।
(१) नागरिक जीवन व्यवस्थित चलता रहे और चोर लुटेरे आदि प्रजापीड़क लोग दंडित किये जा सकें —— इसलिए आरक्षी दलों की नियुक्ति की गई । ये लोग कुल में गिने गये ।
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(२) समग्र राज्य के सज्जनों की सुरक्षा एवं दुर्जनों के नियंत्रण हेतु मंत्रणा कर उचित व्यवस्था देने वाली मंत्रि-परिषद् का गठन किया गया। वे भोगकुल में गिने गये ।
(३) राजा ऋषभ के जो समवयस्क उनके निर्दिष्ट कार्यों को संपन्न करने हेतु नियुक्त किये गये तथा जिन्हें दूरस्थ क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व सौंपा गया, वे राजन्य कुल के कहलाए ।
(४) राज्य की शक्ति को कोई चुनौती न दे सके, इसलिए चतुरंग सेना एवं सेनापतियों की नियुक्ति की गई, वे सब क्षत्रिय कहलाये ।
राज्य का अनुशासन भंग करने वालों तथा प्रजापीड़कों को रोध, बन्धन एवं ताड़न के रूप में शारीरिक दंड का विधान उसी समय से प्रारम्भ किया गया।
विवाह पद्धति का प्रारम्भ
ऋषभ के शैशव-काल से ही युग में बदलाव के चिह्न स्पष्ट होने लगे थे । उस समय तक हर युगल का जन्म एवं मरण साथ-साथ में ही होता था । परन्तु एक दुर्घटना ने उस स्थिति में आने वाले शैथिल्य की सूचना दे दी। एक माता-पिता ने अपने नवजात युगल शिशुओं को ताड़वृक्ष के नीचे सुला दिया । अचानक फल टूटकर बालक के सिर पर गिरा और उसकी मृत्यु हो गई । उस युग की वह प्रथम- अकाल मृत्यु थी । कालान्तर में माता-पिता भी मर गये, तब बालिका अकेली रह गई । उसका अकेलापन सभी के लिए आश्चर्य की बात थी । लोग उसे कुलकर नाभि के
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