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________________ १०२ चिन्तन के क्षितिज पर मनोभाव उत्पन्न नहीं हुए थे । वैर, विरोध और झगड़े भी नहीं थे । सभी व्यक्ति सहज आनन्द की अनुभूति में जीवन-यापन करते थे । कुलकर व्यवस्था काल का चक्र घूमा । धीरे-धीरे भूमि की सरसता में कमी आई। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की श्रेष्ठता अपेक्षाकृत न्यून हुई । फलतः कल्पवृक्षों की शक्ति और संख्या भी क्षीण होती चली गई । आवश्यकता पूर्ति के साधन कम होने लगे तब मुक्त साधनों पर अधिकार जमाने का भाव जागा । इस स्थिति ने आपसी संघर्ष को जन्म दिया । आपाधापी और अपराधवृत्ति बढ़ने लगी । यौगलिक व्यवस्था चरमराई तो लोग क्षेत्रीय आधार पर संगठित होने लगे। इन संगठनों को 'कुल' कहा गया। देखरेख और नियंत्रण के लिए एक व्यक्ति को मुखिया बनाया गया । उसे 'कुलकर' नाम दिया गया । वह न्याय करने तथा अन्यायी को दंड देने का अधिकारी भी था । 1 कुलकर व्यवस्था सात पीढ़ियों तक चली। इसे राजतन्त्र का प्रारम्भिक रूप कहा जा सकता है । सात कुलकरों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचन्द्र, प्रसेनजित, मरुदेव और नाभि । प्रथम दो कुलकरों के युग में सामान्य अपराध होने लगे थे । अपराध - विरति के लिए दंड रूप से 'हाकार' नीति का प्रयोग किया जाने लगा । 'हाय ! तूने यह क्या किया !' इतना कहने मात्र से दोषी लज्जित हो जाता और आगे के लिए वैसा करने का साहस नहीं करता । खेद प्रकाशन का यह दंड कालान्तर में सहज हो गया । तब अगली दो पीढ़ियों में 'माकार' नीति का प्रयोग विकसित हुआ । सामान्य दोषों के लिए 'हाकार' और विशेष दोषों के लिए 'माकार' अर्थात् 'ऐसा मत करो - यह निषेधात्मक दंड काम में लिया गया। जब यह दंड भी स्वल्प प्रभावी होने लगा तब पांचवीं, छठी और सातवीं पीढ़ी के कुलकरों ने 'धिक्कार' नीति का अवलम्बन लिया । छोटे दोषों के लिए 'हाकार' मध्यम दोषों के लिए 'माकार' और बड़े दोषों के लिए 'धिक्कार' कहकर दोषकर्त्ता को तिरस्कृत किया जाता । राज-व्यवस्था सप्तम कुलकर नाभि के नेतृत्व काल तक आते-आते पूर्वापेक्षा से भूमि की सरसता में काफी अन्तर आ गया । कल्पवृक्षों की संख्या अति न्यून हो गई । अशन - वसन की दुर्लभता ने शांत और प्रसन्न रहने वाले युगलों में अशांति के बीज अंकुरित किये । वे परस्पर झगड़ने लगे । धिक्कार नीति तक के शाब्दिक दंडों की व्यवस्था अप्रभावी हो गई। प्राचीन युगलों ने कभी क्रोध एवं झगड़ों की स्थिति नहीं देखी थी। वे घबराये और मिलकर नाभि एवं कुमार ऋषभ को सूचित करने आये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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