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________________ पुद्गल : एक विवेचन ६७ १. औदारिक वर्गणा-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवों के स्थूल शरीर के निर्माण में काम आने योग्य पुद्गल-समूह। २. वैक्रिय वर्गणा-दृश्य-अदृश्य, छोटा-बड़ा, हल्का-भारी आदि विभिन्न क्रियाएं करने में समर्थ शरीर के योग्य पुद्गल-समूह । ३. आहारक वर्गणा-योग-शक्ति जन्य शरीर के पुद्गल-समूह । ४. तेजस वर्गणा-ऊष्मा, तेज या वैद्युतिक पुद्गल-समूह । ५. भाषा वर्गणा-वचनरूप में परिणत होने योग्य पुद्गल-समूह। ६. श्वासोच्छ्वास वर्गणा—जीवों के श्वास और उच्छ्वास में प्रयुक्त होने ___ योग्य पुद्गल-समूह। ७. मनो वर्गणा-चिन्तन में सहायक बनने योग्य पुद्गल-समूह । ८. कार्मण वर्गणा—जीवों की सत्-असत् प्रवृत्तियों से आकृष्ट होकर कर्मरूप में परिणत होने योग्य पुद्गल-समूह। उपर्युक्त वर्गणाओं के अवयव क्रमशः अधिकाधिक सूक्ष्म और अधिकाधिक प्रचय वाले होते हैं। ये वर्गणाएं परस्पर सर्वथा भिन्न नहीं हैं, अतः प्रत्येक वर्गणा के पुद्गलों की वर्गणान्तर परिणति संभव है। प्रथम चार वर्गणाओं के पुद्गलस्कंध अष्टस्पर्शी अर्थात्--शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु और कर्कशइन आठो स्पर्शों से युक्त होते हैं । अन्तिम चार वर्गणाओं के पुद्गल स्कंध चतुःस्पर्शीअर्थात्-शीत, उष्ण, रुक्ष, स्निग्ध-इन चार स्पर्शों से युक्त होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि पुद्गल का जैविक संसार के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। पुद्गल-वर्गणाओं को ग्रहण किये बिना किसी भी जीव का कोई भी कार्य एक क्षण के लिए भी चल नहीं सकता। सुख-दुःखानुभूति से लेकर श्वासोच्छ्वास तक की उसकी प्रत्येक क्रिया पुद्गल-प्रभावित है। यहां तक कि सब क्रियाओं का अधिष्ठान उसका स्थूल या सूक्ष्म शरीर भी पुद्गल-संभूत है। हमारे शरीर से प्रतिक्षण प्रतिबिम्बात्मक पुद्गलों का प्रक्षेप होता रहता है, हमारे प्रत्येक चिन्तन में जो मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण होते हैं, वे तदनुकूल आकृतियों में परिणत होकर अगले ही क्षण वहां से मुक्त होकर आकाश-मण्डल में फैल जाते हैं। हमारी प्रत्येक ध्वनि या शब्द पहले भाषा-वर्गणा के पुद्गलों के रूप में ग्रहण होते हैं, उसके पश्चात् ही यदि वे तीव्र प्रयत्न से उत्सृष्ट हुए हों, तो अति सूक्ष्म काल में ही वे लोकान्त तक उर्मियों के रूप में फैलते चले जाते हैं। उपर्युक्त सभी प्रकार के पुद्गल-स्कंध असंख्यकाल तक उसी रूप में ठहर भी सकते हैं । १. ओरालविउव्वाहार, तेयमासाणु पाण मण कम्मे अहदव्ववग्गणाणं, कमो विवज्जास ओरवत्ते।१-१५ --कर्मग्रन्थ (पंचम) ७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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