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पुद्गल : एक विवेचन
पुद्गल का स्वरूप जैन मतानुसार यह लोक षड्-द्रव्यात्मक है। लोक के घटक उन छह द्रव्यों के नाम हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । इनमें पांच द्रव्य अमूर्त हैं, केवल एक पुद्गलास्तिकाय ही मूर्त है। संक्षिप्त में इसे केवल 'पुद्गल' भी कहा जाता है। यह एक जैन पारिभाषिक शब्द है। बौद्ध दर्शन में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है, परन्तु वह इससे सर्वथा पृथक् चेतना-सन्तति के अर्थ में हुआ है। जैनागमों में भी क्वचित् पुद्गल-युक्त आत्मा को पुद्गल कहा गया है। परन्तु मुख्यतया मूर्त द्रव्य के अर्थ में ही इसका प्रयोग हुआ है । व्युत्पत्ति-गत अर्थ में पूरण-गलन धर्मा होने के कारण इसे 'पुद्गल' कहा जाता है। भावात्मक आधार पर इसकी परिभाषा की जाती है—जो स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवान् होता है, वह पुद्गल है। न्याय-वैशेषिक आदि ने जिसे भौतिक तत्त्व कहा है और वैज्ञानिक जिसे मैटर (MATIER) शब्द से पहचानते हैं, जैनों ने उसी द्रव्य को 'पुद्गल' नाम से अभिहित किया है।
पुद्गल के प्रकार जैनागमों में पुद्गल द्रव्य के दो प्रकार बतलाये गये हैं--परमाणु पुद्गल और नो परमाणु पुद्गल (स्कंध)। अन्यत्र इसके चार प्रकार भी बतलाये गये हैं—स्कंध, देश,
१. जीवेणं भंते । पोग्गली, पोग्गले ? जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि ।
-भगवती, ८-१०-३६१ २. पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः । -तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ५-१ ३. स्पर्शरसगंधवर्णवान् पुद्गलः ।
—जैन सिद्धान्त दीपिका, १-११ ४. स्थानांग, २
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