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अमूर्त चिन्तन
एक बार गौतम ने पूछा-'भगवन् ! तत्त्व क्या है ?' भगवान् ने कहा-'उत्पाद तत्त्व है।' गौतम की समस्या सुलझी नहीं। उन्होंने फिर पूछा- 'भगवन् ! तत्त्व क्या है ?' भगवन् ने कहा-'विनाश तत्त्व है।' अभी भी मन समाहित नहीं हुआ। तीसरी बार गौतम ने पूछा-'भगवन् ! तत्त्व क्या है ?' भगवन् ने कहा-'धौव्य तत्त्व है।'
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-यह त्रिपुटी है। गौतम गणधर ने इसी के आधार पर वाड्.मय का विस्तार किया था। उत्पाद और व्यय प्रत्येक चेतन और जड़ दोनों पदार्थों की अवस्थाएं हैं। जड़ और चेतन दोनों ध्रुव हैं। जड़ चेतन नहीं होता और चेतन जड़ नहीं होता। अवस्थाओं का परिवर्तन इन दोनों में सतत चालू रहता है। चेतन एक अवस्था को छोड़कर अन्य अवस्थाओं में जाता है। यह आत्मा की अमरता है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-'पुराने कपड़े के फट जाने पर जिस प्रकार नया कपड़ा धारण किया जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी अपनी वर्तमान जीर्ण स्थिति को त्यागकर नया रूप स्वीकार करती है। कभी देवत्व, कभी पशुत्व, कभी नारकीय, कभी मानवीय आकार में आत्मा का परिवर्तन होता रहता है। वह बालक से युवक
और युवक से बूढ़ा बन मृत्यु का आलिंगन करती है। इन सबमें आत्मा विद्यमान रहती है। ये उसकी विभिन्न अवस्थाएं हैं। चेतनत्व का विनाश नहीं होता।'
जड़ में यही परिवर्तन मिलता है। मिट्टी के अनेक आकार बनते हैं और बिगड़ते हैं। सोने की कितनी अवस्थाएं होती हैं ? लेकिन सुवर्णत्व सब में वैसा ही रहता है। एक व्यक्ति सोने का घट लेना चाहता है, एक व्यक्ति मुकुट और एक व्यक्ति केवल सुवर्ण। मुकुट को तोड़कर सोने का घट बनाने पर एक को प्रसन्नता होती है और मुकुट वाले को विषाद। लेकिन सुवर्ण वाले व्यक्ति को न प्रसन्नता है, न विषाद। सुवर्ण धौव्य है। घट और मुकुट उसकी अवस्थाएं हैं। पुद्गल-जड़ के गुण किसी भी दशा में मिटते नहीं। मिट्टी भले सोने के रूप में परिणत हो जाए, शरीर चिता में जलकर राख भी क्यों न बन जाए, इन सबमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श-ये सदा अवस्थित रहेंगे। एक परमाणु से लेकर अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध में भी इनकी अवस्थिति है।
संसार की अपेक्षा से मुक्त होने वाले जीव कम हो जाते हैं। वे अपने परमात्म-स्वरूप को पाकर जन्म और मृत्यु के घेरे को लांघ जाते हैं। किन्तु इससे आत्मा की संख्या में कोई कमी-वेशी नहीं होती। आत्मत्व यहां और वहां सतत विद्यमान रहता है। संसारी आत्माएं अनन्त हैं और मुक्त आत्माएं भी अनन्त हैं। मुक्त जीवों की अपेक्षा संसारी जीव सदा अनन्त रहे हैं और रहेंगे।
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