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बोधि-दुर्लभ भावना
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३. संवेग-मोक्ष के प्रति तीव्र अभिरुचि । ४. निर्वेद-वैराग्य । उनके तीन प्रकार हैं-संसार-वैराग्य, शरीर-वैराग्य
और भोग-वैराग्य। ५. अनुकंपा-कृपा भाव, सर्वभूतमैत्री-आत्मोपम्य भाव। प्राणीमात्र के
प्रति अनुकंपा।
अहिंसा दया का पर्यायवाची नाम है। पंचाध्यायी में इसका बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है। उसमें कहा है-जो समग्र प्राणियों के प्रति अनुग्रह है, उस अनुकंपा को दया जानना चाहिए। मैत्रीभाव, मध्यस्थता, शल्य-वर्जन और वैर-वर्जन-ये अनुकम्पा के अंतर्गत हैं।' इससे दया का विशुद्ध स्वरूप हमारे सामने स्पष्ट हो जाता है। जिस दया में किसी का भी उत्पीड़न नहीं होता, वस्तुत: वही सच्ची अनुकम्पा है। बोधि के प्रकार
बोधि के तीन प्रकार हैं-ज्ञानबोधि, दर्शनबोधि और चरित्रबोधि । सहजतया मनुष्य का आकर्षण ऐश्वर्य और सुख-सुविधा में होता है, किन्तु वे ही दु:ख के हेतु बनते हैं, इस स्थिति को मनुष्य भुला देता है। प्रस्तुत भावना में मनुष्य के सम्मुख एक प्रश्न उपस्थित होता है। इस जगत् में दुर्लभ क्या है ? धन-सम्पदा और सुख-सुविधा वस्तुत: दुर्लभ नहीं है। दुर्लभ है मानसिक शांति । वह धन-सम्पदा और सुख-सुविधा से प्राप्त नहीं होती किंतु सम्यग्ज्ञान, सम्यग् दृष्टिकोण और सम्यग्चारित्र के द्वारा प्राप्त होती है।
मन की शांति का हेतु बोधि है। कारण प्राप्त होने पर कार्य की सिद्धि सहज हो जाती है। बोधि प्राप्त होने पर मन की शांति का प्रश्न जटिल नहीं होता।
गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-'भंते ! दर्शन-सम्पन्नता का क्या लाभ है ?' भगवान् ने कहा-'गौतम ! दर्शन-सम्पन्नता से विपरीत दर्शन का अन्त होता है। दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति यथार्थद्रष्टा बन जाता है। उसमें सत्य की लौ जलती है, वह फिर बुझती नहीं। वह अनुत्तरज्ञान से आत्मा को भावित करता है। यह आध्यात्मिक फल है। व्यावहारिक फल यह है कि सम्यग्दर्शी देवगति के सिवाय अन्य किसी गति का आयुष्य नहीं बांधता ।'
योगी व्रतेन संपन्नो, न लोकस्यैषणाञ्चरेत् । भावशुद्धि: क्रियाश्चापि, प्रथयन् ते शिवमश्नुते । । ५९ ।।
महाव्रतों से सम्पन्न योगी लोकैषणा में नहीं फंसता। वह मानसिक शुद्धि और सत्क्रियाओं का विस्तार करता हुआ मोक्ष को प्राप्त होता है।
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