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________________ बोधि-दुर्लभ भावना ८५ संसार कभी शून्य नहीं होगा। मुक्ति जाने के योग्य जीव भी सदा यहां मिलते रहेंगे। ___ श्राविका जयन्ती के प्रश्न से इसका स्पष्ट हल सामने आ जाता है। जयन्ती ने भगवान् महावीर से पूछा-'भगवन् ! क्या सभी जीव मुक्त हो जायेंगे? यदि सभी मुक्त हो जाएंगे तो संसार जीवशून्य हो जाएगा।' भगवान् ने कहा-ऐसा नहीं होता। मोक्ष में वे ही जीव जाते हैं, जो भव्य होते हैं।' इससे एक प्रश्न पैदा हो जाता है कि भव्य जीव सब मोक्ष में चले जायेंगे, तो क्या संसार भव्यशून्य नहीं हो जायेगा ?' भगवान् ने कहा-'ऐसा भी नहीं होगा। मोक्ष में जाने वाले भव्य में जायेंगे। लेकिन वैसी अनुकूल स्थिति उत्पन्न होने पर ऐसा होता है। सबको ऐसे अवसर सुलभ नहीं होते।' आत्मा ज्ञानमय है। उसको सब कुछ बोध होना चाहिए। उसके लिए यह अज्ञेय क्यों है कि वह कहां से आया है ? कहां जायेगा ? भविष्य की घटनाएं क्यों अज्ञात रहती हैं ? ज्ञान की पूर्णता तथा श्रद्धा और आचरण के विकास में कौन बाधक है ? भगवान् महावीर की दृष्टि में ज्ञानावरणीय, अन्तराय और मोहनीय-ये तीन कर्म बाधक हैं। ज्ञान पर जो आवरण है वह ज्ञानावरणीय है, आत्मा को जानने में वह बाधा डालता है। जब यह हट जाता है तब ज्ञान का क्षेत्र व्यापक बन जाता है। आत्म-विकास में विघ्न डालने वाला कर्म अन्तराय है। वह आत्मशक्ति के स्फोट को रोकता है। मनुष्य यथार्थ को जानता हुआ भी उसमें उद्योग नहीं करता। यथार्थ के प्रति श्रद्धाशील न होना और न उसको स्वीकार करना-यह मोहनीय कर्म की देन है। मोहोदय से मनुष्य भौतिक आकर्षणों में फंसा रहता है। सत्य के प्रति न उसकी अभिरुचि होती है, न वह सत्य का आचरण ही करता है। किन्तु उल्टा इसे अपनी शांति में बाधक मानता है। यह मूढ़ता मोहजन्य है। स्वसन्मत्याऽपि विज्ञाय, धर्मसारं निशम्य वा । मतिमान् मानवो नूनं, प्रत्याचक्षीत पापकम् ।। बुद्धिमान् मनुष्य धर्म के सार को अपनी सद्बुद्धि से जानकर या सुनकर पाप का प्रत्याख्यान करे। बुद्ध ने कहा-भिक्षुओ ! मैं आदरणीय, श्रद्धेय और सम्माननीय हूं, इसलिए मेरी वाणी को स्वीकार मत करो, किन्तु अपनी मेधा-बुद्धि से परीक्षण करके स्वीकार करो- 'परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्य, मद्वचो न तु गौरवात् ।' महावीर भी यही कहते हैं-अपनी बुद्धि से परखो-'मइमं पास।' और भी आत्मद्रष्टा ऋषियों का यही स्वर है। मुहम्मद ने कहा है-'सब जगह मुझे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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