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धर्म भावना
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है। बैठते ही शरीर निश्चल हो जाए तो समझना चाहिए कि धर्म-ध्यान उतर रहा है। जब हाथ, पैर, वाणी आदि का असंयम समाप्त हो जाता है तब मानना चाहिए कि धर्म-ध्यान का अवतरण हुआ है। ये दो बाहरी लक्षण हैं। तीसरा लक्षण है-श्वास की मंदता। श्वास तेज है तो समझ लेना चाहिए कि धर्म-ध्यान में प्रवेश नहीं हुआ है। श्वास मंद है तो धर्म-ध्यान घटित हो रहा है। यह कसौटी जैन आचार्यों की हीं नहीं है, हठ-योग की भी यह कसौटी है। श्वास इतना मन्द हो जाता है कि पता ही नहीं चलता कि वह चल रहा है। इस प्रकार श्वास की मंदता, वृत्तियों की स्थिरता, व्यवहार में उत्तेजित नहीं होना-ये सब कसौटियां हैं।
धर्म-ध्यान शुद्ध लेश्याओं के आलंबन से होता है । तैजस, पद्म और शुक्ल-ये तीन शुद्ध लेश्याएं हैं। ये जितनी होती हैं, उतना ही धर्म-ध्यान होता है। इन लेश्याओं के अभाव में राग-द्वेष आ जाता है। धर्म-ध्यान धर्म-ध्यान नहीं रहता। तैजस लेश्या का काम है आनंद का अनुभव कराना, सुखासिका-इतनी सुखासिका कि पौद्गलिक जगत् में उसकी कोई तुलना नहीं है। एक वर्ष तक सम्यक् प्रकार से तेजोलेश्या की साधना करने वाला सर्वार्थसिद्ध के देवों के सुखों का अतिक्रमण कर देता है। पद्मलेश्या से शांति प्रकट होती है। मन की इतनी शांति, कषायों की इतनी शांति कि उसकी कोई सीमा नहीं रहती। शुक्ललेश्या से वीतरागता, कषायों की निर्मलता, मन की निर्मलता, चित्त की शुद्धि प्रकट होती है।
जो व्यक्ति आनंदित रहता है, निरन्तर आनंद का अनुभव करता है तो समझ लेना चाहिए कि धर्म-ध्यान जीवन में उतरा है। जीवन यदि शांति से ओत:प्रोत हो तो मानना चाहिए कि धर्म-ध्यान जीवन में व्याप्त है। चित्त की निर्मलता हो, कोई प्रवंचना न हो, ठगाई न हो, आगे-पीछे कुछ ऐसा बर्ताव न हो तो धर्म-ध्यान का अवतरण समझ लेना चाहिए।
___ धर्म-ध्यान के लिए श्रद्धा, स्वाध्याय और भावना अपेक्षित है, यह उसके लक्षण, आलंबन और अनुप्रेक्षाओं से फलित होता है। धर्म का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
एक बार स्वर्ण ने स्वर्णकार से कहा, 'तुम मुझे अग्नि में डालते हो, इसका मुझे दु:ख नहीं। लोहे से मुझे पीटते हो, इसका भी मुझे दुःख नहीं। लेकिन दुःख इस बात का है कि तुम मुझे चिरमियों से तोलते हो।' ठीक यही वेदना समझदार व्यक्ति के मन में होती है। जब वह सुनता है कि धर्म अफीम की गोली है या निकम्मी चीज है। किन्तु मेरी यह मान्यता है कि व्यक्ति श्वास के बिना जी सकता है, (चाहे कुछ क्षण तक ही सही)। लेकिन धर्म के बिना दो क्षण भी जीवित नहीं रह सकता।
दर्शन की भाषा में धर्म की परिभाषा है आत्मा की शुद्धि ही धर्म है। साहित्य
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