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अमूत्ते चिन्तन
की भाषा में धर्म की परिभाषा है-जिसके द्वारा ज्ञान, आनन्द और शक्ति का विकास हो, वही धर्म है। मनोविज्ञान की भाषा में धर्म की परिभाषा है-समता।
समता धर्म है और विषमता अधर्म। यह एक कसौटी है। एक जमाना था अर्थवाद का । लोग किसी भी चीज को बढ़ा-चढ़ाकर कहते थे। जैसे अगर तुम क्रोध करोगे तो काले हो जाओगे या अमुक काम करोगे तो स्वर्ग में जाओगे आदि-आदि। लेकिन आज वह स्थिति नहीं रही। आज का बुद्धिवादी इन बातों पर विश्वास नहीं करेगा। लोकमान्य तिलक को पुस्तकों से बेहद प्यार था। उन्होंने एक बार कहा था, 'अगर मैं नरक में भी जाऊं और वहां मुझे पुस्तकें मिल जाएं तो मैं स्वर्ग की कामना नहीं करूंगा, वही मेरे लिए स्वर्ग बन जाएगा।' आज व्यक्ति नरक से डरता नहीं है। आचार्य हरिभद्र ने तीन प्रकार के व्यक्ति बताये हैं-मंद, मध्यम और प्राज्ञ । तीनों को अलग-अलग तरीकों से समझाया जाए। मन्द व्यक्ति को कहें, अगर तुम बुरा करोगे, पाप करोगे तो नरक में जाओगे। मध्यम व्यक्ति को वस्तु-स्थिति समझायी जाए-यह काम बुरा है, ऐसा करने से तुम्हारा अहित होगा। प्राज्ञ व्यक्ति को तत्त्व क्या है, यह समझाने की आवश्यकता है। कौन-सा काम करने से किस प्रकार की प्रतिक्रिया होगी, यह समझ लेने पर प्राज्ञ व्यक्ति स्वत: सही मार्ग अपना लेता है।
क्रोध का असर होता है हमारे मन, वचन और शरीर पर । साधारण व्यक्ति स्वयं इसका अनुमान नहीं लगा सकता, किन्तु इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने पर हम देखेंगे कि क्रोधी व्यक्ति का रक्त विषम बन जाता है। क्रोध में डूबी हुई माता द्वारा बच्चे को स्तन-पान कराने पर कभी-कभी बच्चे की मृत्यु हो जाने के उदाहरण भी सामने आये हैं। घृणा से आंतों में छाले हो जाते हैं, दस्त लगने लगते हैं। ईर्ष्या से धाव व मुंह में छाले हो जाते हैं। यहां तक कि नब्बे प्रतिशत बीमारियां मानसिक अशुद्धि की उपज है और दस प्रतिशत शारीरिक । आयुर्वेद का मत है कि क्रोध, मान, लोभ, ईर्ष्या व भय आदि से मन्दाग्नि हो जाती है। जो रस बनता है वह कभी कम और कभी अधिक बनने लगता है, इसके कारण पाचन पर भयंकर प्रभाव पड़ता है। क्रोध, भय, लोभ आदि दुर्गुणों के कारण अनेक बार मृत्यु तक हो जाती है।
___इन सब बुराइयों और दुर्गुणों का प्रतिकार मनोवैज्ञानिक ढंग से किया जाए, इसलिए हमें धर्म की ओर मुड़ना पड़ेगा। लेकिन केवल रूढ़ि निभाना ही धर्म नहीं है। सामायिक का अर्थ समझे बिना एक मुहूर्त तक मुख-वस्त्रिका मुंह पर बांध कर बैठे रहना ही सामायिक नहीं है। सामायिक का अर्थ है-समता। मनरूपी घोड़े पर लगाम लगाये बिना लड़ाई, निन्दा आदि विचारों व राग-द्वेष आदि भावों पर रोक लगाये बिना शुद्ध सामायिक का फल भी कहां से प्राप्त होगा ?
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