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निर्जरा भावना
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ही प्रक्रिया नहीं है, किन्तु क्रोध और भय के मूल तंत्र को मिटाने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के द्वारा ही ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा, चित्तवृत्तियों की निर्मलता, धर्मध्यान और शुक्लध्यान की स्थिति उपलब्ध होती है।
निर्जरा का मूल हेतु तपस्या है। तपस्या के द्वारा तीन बातें फलित होती
१. ऊर्जा का अधिक संचय । २. ऊर्जा का अल्प व्यय । ३. ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा।
यह घटित होने पर ज्योतिपुंज के साथ साधक का सम्पर्क स्थापित हो जाता है। वह रश्मि जो 'मैं हूं'-इतनी-सी प्रतीत होती थी वह ज्योतिपुंज में मिल जाती है। और तब 'मैं हूं' बदल जाता है। केवल है' शेष रह जाता है 'मैं' की बात समाप्त हो जाती है। जो रश्मियां बिखरी पड़ी थीं, जो एक जालीदार ढक्कन से छन-छनकर बाहर फैल रही थीं, वे सारी रश्मियां सिमटकर ज्योतिपुंज में लीन हो जाती हैं। उस समय ज्योतिपुंज के साक्षात्कार
का प्रश्न भी समाप्त हो जाता है। वहां कौन ज्योतिपुंज और कौन मैं-यह भेद मिट जाता है। सब कुछ ज्योतिमय बन जाता है।
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