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समाधि है शोधन की प्रक्रिया
समाधि शोधन की प्रक्रिया है । जब वह प्रक्रिया चलती है तब शब्द जागते हैं, भावनाएं जागती हैं, ऐसे शब्द और ऐसी भावनाएं जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। जो आदमी भला और सज्जन दिखाई देता रहा है, वह भी अचानक हिंसक और बेईमान हो जाता है। उसके मन में बुराई की भावना जागती है, हिंसा की बात उभरती है, आत्महत्या के विचार आते हैं, चोरी की भावना जागृत होती है। गृहस्थ में ही नहीं, साधु-संन्यासी में भी ऐसा परिवर्तन होता है। जब वह ध्यान की गहराइयों में जाता है तब संस्कार उभरते हैं और परिणाम स्वरूप ये सारी वृत्तियां जाग जाती हैं। स्वयं के मन में इन वृत्तियों के प्रति ग्लानि होती है । वह सोचता है- अरे, यह क्या ? मैंने कभी इन निम्न वृत्तियों को पोषण दिया ही नहीं, फिर ये क्यों उभर रही हैं ! ये वृत्तियां इसीलिए उभरती हैं कि उनके मूल संस्कार चेतना की गहराई में दबे होते हैं । ध्यान से वे जब छेड़े जाते हैं तब विपरीत भावनाएं आती हैं और व्यक्ति को बदल देती हैं। केवल आंख बन्द कर लेने मात्र से, केवल प्रतिसंलीनता का अभ्यास कर लेने से या प्रियता या अप्रियता की भावना को साध लेने से समस्या का समाधान नहीं होता। समस्या का समाधान तब होता है जब भीतर में रहे हुए शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के भण्डार को रिक्त करना जान लें। जब यह रिक्त या रेचन करने की प्रक्रिया सीख ली जाती है तब वह भंडार खाली हो जाता है। यही निर्जरा की प्रक्रिया है ।
निर्जरा : रेचन की प्रक्रिया
धर्म के क्षेत्र में यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या धर्म के पास कोई रेचन का उपाय है ? धर्म दमन सिखाता है। वह कहता है- गुस्से को दबाओ, कामवासना का दमन करो, भय और अहं को दबाओ । धर्म केवल दबाने की ही बात करता है। यह सही नहीं है । धर्म ने कभी दमन नहीं सिखाया । उसके पास निर्जरा का सिद्धांत है। निर्जरा का अर्थ है-रेचन । जो भीतर संचित है उसको बाहर निकालना, यह है निर्जरा। इतना निकालना, इतना रेचन करना कि भीतर में जो संचित है, केवल वही समाप्त न हो जाएं, बल्कि संचित करने का तंत्र भी समाप्त हो जाए।
जब किसी पंछी की पांखें रजों से भर जाती हैं तब वह अपनी पांखों को प्रकंपित कर सारे रजकणों को झाड़ देता है। इसी प्रकार इतना प्रकंपन करो कि सारा दबाव समाप्त हो जाए, बाहर निकल जाए, रेचन हो जाए । यह निर्जरा की प्रक्रिया है । यह केवल क्रोध या भय के तनाव को समाप्त करने की
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अमूर्त चिन्तन
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