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________________ संवर भावना नहीं है। ये दोनों निष्पत्तियां हैं। संयम की निष्पत्ति है संवर और तप की निष्पत्ति है निर्जरा । जब बाहर से आना बंद हो जाता है और जो भीतर है वह बाहर भागने लगता है, भीतर रहना कठिन होता है, उस समय अकर्म की स्थिति प्राप्त होती है । हमारी चंचलताएं समाप्त हो जाती हैं । हमारी प्रवृत्तियां समाप्त हो जाती हैं । सहज ही स्थिरता प्राप्त होती है, अकर्म की अवस्था उपलब्ध होती है। अकर्म की स्थिति प्राप्त होने के पश्चात् सिद्धि प्राप्त होती है। तब ज्ञाता और द्रष्टाभाव स्थिर हो जाता है । जिस ज्ञाता और द्रष्टाभाव के लिए यात्रा प्रारम्भ की थी, वह यात्रा सम्पन्न हो जाती है। यह हमारी यात्रा की मंजिल है। इसमें हमारा स्वरूप प्रकट हो जाता है । हमारा स्वरूप है- सिद्ध, बुद्ध और मुक्त । गुप्त का प्रयोग हम कायोत्सर्ग करें, काया का विसर्जन करें, शरीर को त्याग दें, जीते हुए भी मृतवत् अनुभव करें और शरीर को बिलकुल निष्क्रिय, निश्चेष्ट और प्रवृत्तिशून्य बनाएं | यह है कायगुप्ति, कायोत्सर्ग, काया का उत्सर्ग- बहुत बड़ी बात है काया को छोड़ देना। मरने के बाद हर आदमी शरीर छोड़ देता है या वह छूट जाता है, किन्तु जीते-जी शरीर को छोड़ देना बहुत बड़ी साधना है। भगवान् से पूछा- कायगुत्तयाए णं भंते जीवे किं जणयइ ?' भगवन्! कायगुप्ति का परिणाम क्या है ? भगवान् ने जणय - कायगुप्ति के द्वारा संवर होता है । ! कहा- ' Jain Education International ६९ - कायगुत्तयाए णं संवरं दो शब्द हैं- आस्रव और संवर । आस्रव वह है जिसके द्वारा दोष हमारे भीतर प्रवेश करते हैं । हमारी आत्मा में दोष नहीं है। हमारी चेतना में कोई गंदगी नहीं है । वह शुद्ध है, निर्मल है, स्वच्छ है । किन्तु जैसे हर मकान के साथ दरवाजे होते हैं, खिड़कियां होती हैं, वैसे ही चेतना भी इससे मुक्त नहीं है। उसके साथ भी कुछ दरवाजे जुड़े हुए हैं, कुछ जुड़ी हुई हैं खिड़कियां । उसको हम आव कहते हैं। आस्रव अर्थात् छिद्र । इनके द्वारा बाहर से तत्त्व आते हैं और हम उनसे भर जाते हैं । वे विजातीय तत्त्व हैं, पराए हैं। जो अपना होता है, उससे कोई खतरा नहीं होता । पराये से खतरे की सम्भावना बनी रहती है। उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । हम ऐसा उपाय करें कि आस्रव न रहें। ये खिड़कियां खुली न रहें, ये दरवाजे खुले न रहें, ये नाले खुले न रहें, ये छेद खुले न रहें । ये सारे गुप्त हो जाएं। सुरक्षित हो जायें। संस्कृत में गुपू रक्षणे धातु है । गुप्त का अर्थ है-संरक्षण । कायगुप्ति का अर्थ है - काया की सुरक्षा । हम काया से इतने सुरक्षित हो गए कि भीतर किसी के लिए अवकाश नहीं है। बाहर से कोई आ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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