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________________ ६८ अमूर्त चिन्तन अन्य निमित्तों से नहीं हो सकता। जो अपने निश्चय में एकनिष्ठ होते हैं, वे महान् कार्य को सिद्ध कर लेते हैं। गौतम ने पूछा- 'भन्ते! संयम से जीव क्या प्राप्त करता है ?' भगवान् ने कहा- 'संयम से जीव आस्रव का निरोध करता है । संयम का फल अनास्रव है । जिसमें संयम की शक्ति विकसित हो जाती है उसमें विजातीय द्रव्य का प्रवेश नहीं हो सकता । संयमी मनुष्य बाहरी प्रभावों से प्रभावित नहीं होता । कहा है, सब काम ठीक समय पर करो। यदि हम नौ बजे ध्यान करते हैं और प्रतिदिन उस समय ही ध्यान करते हैं, मन की अन्य किसी मांग को स्वीकार नहीं करते तो हमारी संयम शक्ति प्रबल हो जायेगी । संयम एक प्रकार का कुम्भक है। कुम्भक में जैसे श्वास का निरोध होता है, वैसे ही संयम में इच्छा का निरोध होता है । भगवान् महावीर ने कहा- सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, बीमारी, गाली, मारपीट - इन सब घटनाओं को सहन करो । यह उपदेश नहीं है । यह संयम का प्रयोग है। सर्दी लगती है । तब मन की मांग होती है कि गर्म कपड़ों का उपयोग किया जाए या सिगड़ी आदि की शरण ली जाए । गर्मी लगती है तब मन ठंडे द्रव्यों की मांग करता है। संयम का प्रयोग करने वाला उस मांग की उपेक्षा करता है । वह मन की मांग को जान लेता है, देख लेता है पर उसे पूरा नहीं करता। ऐसा करते-करते मन मांग करना छोड़ देता है, फिर जो घटना घटती है वह सहजभाव से सह ली जाती है । प्रेक्षा संयम है, उपेक्षा संयम है । हम पूरी एकाग्रता के साथ अपने लक्ष्य को देखें, अपने आप संयम हो जाएगा। फिर मन, वचन और शरीर की मांग विचलित नहीं करेगी। उसके साथ उपेक्षा, मन, वचन और शरीर का संयम अपने आप सध जाता है । भगवान् ने कहा विणएतु सोयं क्खिम्म, एस महं अकम्मा जाणति पासति । इन्द्रिय-विषयों का परित्याग का निष्क्रमण करने वाला महान् साधक अकर्म (ध्यानस्थ ) होकर जानता, देखता है। संयम की निष्पत्ति-संवर संयम के सधते ही संवर प्राप्त हो जाता है। संयम हमारी साधना है और संवर उसकी निष्पत्ति है। किसी विजातीय तत्त्व का बाहर से न आना संवर है । जब संयम की साधना होती है तब बाहर से आना अपने आप बन्द हो जाता है । जब संवर सधता है तब तप की चेतना शुरू हो जाती है। एक आंदोलन प्रारम्भ हो जाता है। जब तक बाहर से रसद पहुंच रहा था तब तक बहुत बड़ी शक्ति मिल रही थी। बाहर सारा रसद बन्द हो गया, अब जो भीतर है, उसमें बड़ा आन्दोलन होने लग जाएगा! तप की प्रक्रिया एक साधना है । निर्जरा उसकी निष्पत्ति है । निर्जरा कोई साधना नहीं है, संवर कोई साधना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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