________________
७०
अमूर्त चिन्तन
नहीं सकता। केवल हम हैं, हमारी चेतना है, इसके सिवाय भीतर कुछ भी नहीं है। इस प्रक्रिया का नाम है संवर। साधना का चरम शिखर : अयोग
आवेग चैतन्य का स्वभाव नहीं है। यह चैतन्य के साथ उत्पन्न मूढ़ता है। यह मोह है, विकृति है, किन्तु स्वभाव नहीं है। इसीलिए यह सम्भावना शेष रहती है कि आवेग को निरस्त किया जा सकता है। उस योग को दूर किया जा सकता है जो आकर जुड़ गया है। उसे काटा जा सकता है। उसे काटने के अनेक उपाय हैं, अनेक साधन हैं। उन सब साधनों में महत्त्वपूर्ण साधन है-चैतन्य का अनुभव, संवर-शुद्ध उपयोग। जब हम चैतन्य के अनुभव में होते हैं तब संवर की स्थिति होती है, हमारा संवर होता है। जब चैतन्य का अनुभव होता है तब कोई आवेग हो नहीं सकता। आवेग तब होता है जब हमारा चैतन्य का अनुभव लुप्त हो जाता है। जब चैतन्य पर मूर्छा छा जाती है, जब चैतन्य पर ढक्कन आ जाता है, तब आवेग को उभरने का अवसर मिलता है। जब चैतन्य की अनुभूति होती है तब आवेग आ ही नहीं सकता।
हमारी साधना को सूत्र है-चैतन्य का सतत अनुभव । जब चैतन्य के अनुभव की स्थिति निरन्तर बनी रहती है तब हमारा संवर पुष्ट होता रहता है। संवर के आते ही द्वार बन्द हो जाएगा। चैतन्य का अनुभव होते ही सब द्वार बन्द हो जाएंगे। कोई द्वार खुला नहीं रहेगा। उस समय न आवेग आ सकता है, न उत्तेजना आ सकती है और न वासना आ सकती है। कुछ भी नहीं आ सकता। सब विच्छिन्न हो जाते हैं। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा कि साधना का चरम शिखर है-'अयोग' । वहां सब योग समाप्त हो जाते हैं। यह 'अयोग' शब्द बड़ा जटिल है। सभी आचार्यों ने शब्द चुना-'योग'। उन्होंने कहा योग की साधना करो। भगवान् महावीर ने कहा-'नहीं, अयोग की साधना करो। योगों को समाप्त करो, सम्बन्धों को तोड़ो।' इससे क्या होगा? इससे सब कुछ घटित हो जाएगा। क्योंकि पाना कुछ भी नहीं है। बाहर से लेना कुछ भी नहीं है। हम सब अपने आप में परिपूर्ण हैं। बाहर जितनी वस्तुएं हैं. उन्हें छोड़ना ही हितकर है। अन्तिम शिखर है-अयोग। जब सम्यक्त्व का संवर हो जाता है, व्रत का संवर हो जाता है, अप्रमाद का संवर हो जाता है, अकषाय का संवर हो जाता है, तब अन्तिम शिखर आता है-अयोग संवर। जहां हमने सारे सम्बन्ध काट डाले, वहां अयोग हो जाता है। वहां पूर्ण विकास हो जाता है, परमात्मा की पूर्ण स्थिति उपलब्ध हो जाती है। अयोग संवर के घटित होते ही जो पौद्गलिक सम्बन्ध आत्मा के साथ हैं, वे सब एक साथ विच्छिन्न हो जाते हैं। उस समय हमारा अस्तित्व उजागर होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org