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अमूर्त चिन्तन
इन्द्रिय-संवर की प्रक्रिया
प्रश्न होता है-इन्द्रिय-संवर कैसे होता है ? क्या इन्द्रियों का संवर किया जा सकता है ? क्या जीभ पर कोई चीज रखे और वह अच्छी है या बुरी इस भाव से बचा जा सकता है ? क्या सामने रूप आने पर वह सुन्दर है या असुन्दर इससे बचा जा सकता है ?
हां, यह संभव है। जीभ पर चीज रखें तो यह पता लग सकता है कि वह मीठी है या कड़वी या तिक्त ? आगे की स्थिति में तो यह पता लगना भी बन्द हो जाता है। जीभ के ज्ञानांकर अपना काम बन्द कर देते हैं, संवेदन केन्द्र भी अपना काम समाप्त कर देते है। यह संभव है, क्योंकि जब व्यक्ति संवेदना की भूमिका से ऊपर उठकर ज्ञान की भूमिका पर जाता है, चैतन्य के अनुभव में जाता है, तब संवेदना की भूमिका नीचे रह जाती है और ज्ञान की भूमिका ऊपर आ जाती है। यह सम्भव है। इसके उपाय का निर्देश करते हुए जयाचार्य ने लिखा है-'ते जित्या मन थिर करी' मन को स्थिर कर इन्द्रियों को जीता जा सकता है। हम लोग इन्द्रियों को जीतने का सीधा प्रयत्न करते हैं। सीधा इन्द्रियों को जीतना कभी संभव नहीं होता। आंख को जीतना, कान को जीतना, जीभ को जीतना कभी सम्भव नहीं है। वास्तव में उनको जीतना ही नहीं है। वे लड़ती ही नहीं हैं।
इन्द्रियां हमारी ज्ञानधारा हैं। उनके साथ लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। मन के साथ लड़ना आवश्यक है। जिसने मन को समझ लिया, वह इन्द्रियों के साथ आने वाली मूर्छा को समाप्त कर देता है। प्रियता और अप्रियता, राग और द्वेष, मूर्छा-ये सब मन के साथ आती हैं। ये इन्द्रियों की ज्ञानधारा में मिलती हैं। हम उस मूर्छा को समझें, मोह को समझें। वास्तव में उसे ही समझना है। उसको समझ लेने पर तटस्थता आ सकती है। इंन्द्रियों के संवर से पहले आवश्यक है मन का संवर। मन का संवर होने पर इन्द्रियों का संवर अपने आप हो जाता है। जिस व्यक्ति का मन शांत है, जिसका चित्त शांत है, जिसकी बुद्धि शांत है, उसके समक्ष रूप आए तो वह रूप रूप होगा. ज्ञेय होगा किन्तु विकार नहीं होगा। ज्ञेय और विकार के बीच बहुत सूक्ष्म भेद रेखा है। दोनों को अलग समझना चाहिए। शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये ज्ञेय हैं। जानने योग्य हैं। समस्या का हल : समाधि
इन्द्रिय और मन की परिधि में जीने वाले लोग हजारों-हजारों प्रकार की समस्याएं भोगते हैं। ये समस्याएं सरकार नहीं सुलझा सकती। अनाज की
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