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आस्रव भावना
जाता है। मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद-ये कषाय के उदय से ही निष्पन्न होते हैं। तीव्रतम कषाय के उदयकाल में सम्यग् दृष्टि उपलब्ध नहीं होती। तीव्रतर कषाय के उदयकाल में आंशिक विरति भी नहीं होती। तीव्र कषाय के उदयकाल में पूर्ण विरति नहीं होती। मन्द कषाय के उदयकाल में वीतरागता उपलब्ध नहीं होती। चारों कषायों के तीव्रता और मन्दता के आधार पर सोलह प्रकार बनते हैं।
१. तीव्रतम क्रोध-पत्थर की रेखा के समान । (स्थिरतम) २. तीव्रतम क्रोध-निट्टी की रेखा के समान ।
(स्थिरतर) ३. तीव्रतम क्रोध-धूली की रेखा के समान ।
(स्थिर) ४. मंद क्रोध-जल की रेखा के समान। (अस्थिर, तात्कालिक) तीव्रतम मान-पत्थर के खम्भे के समान ।
(दृढ़तम) ६. तीव्रतर मान-हाड़ के खंभे के समान ।
(दृढ़तर) तीव्र मान-काष्ठ के खंभे के समान ।
(दृढ़) ८. मंद मान-लता के खंभे के समान ।
(लचीला) ९. तीव्रतम माया-बांस की जड़ के समान ।
(वक्रतम) १०. तीव्रतर माया-मेंढ़े के सींग के समान ।
(वक्रतर) ११. तीव्र माया-चलते बैल की मूत्रधारा के समान । (वक्र) १२. मंद माया-छिलते बांस की छाल के समान । (स्वल्प वक्र) १३. तीव्रतम लोभ-कृमि रेशम के समान ।
(गाढ़तम रंग) १४. तीव्रतम लोभ-कीचड़ के समान ।
(गाढ़तर रंग) १५. तीव्रलोभ-खंजन के समान।
(गाढ़ रंग) १६. मंदलोभ-हल्दी के समान।
(तत्काल उड़ने वाला रंग) कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। तीव्रतम कषाय को अनंतानुबन्धी, तीव्रतर कषाय को अप्रत्याख्यानी, तीव्र कषाय को प्रत्याख्यानी और मंद कषाय को संज्वलन कहा जाता है।
इन कषायों को उत्तेजित करने वाले तत्त्वों को 'नो-कषाय' कहा जाता है। यहां 'नो' का अर्थ है-ईषद्, थोड़ा। 'नो कषाय' नौ हैं। हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगुंछा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद।
मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद-इन तीनों आस्रवों के समाप्त हो जाने पर भी कषाय आस्रव से कर्म परमाणुओं का आगमन होता रहता है। कषाय के समाप्त हो जाने पर केवल योग से पुण्य कर्म का बन्ध होता रहता है।
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