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अमूर्त चिन्तन
ग्रन्थियां बनती रहती हैं। वे जीवनभर खुलती नहीं। व्यवहार में क्रूरता अधिक रहती है। मिथ्यात्वी मनुष्य दुःखद विषयों को सुखद मानता है और अशाश्वत विषयों को शाश्वत मानकर चलता है। उसमें असत्य का आग्रह होता है। वह पदार्थ को ही सर्वस्व मानता है। धन के प्रति उसमें तीव्रतम मूर्छा होती है। नैतिकता या प्रामाणिकता में उसे कोई विश्वास नहीं होता। अविरति
___ मनुष्य में एक आकांक्षा की वृत्ति होती है। उसके कारण वह पदार्थ में अनुरक्त होता है। उसे वह प्राप्त करना और भोगना चाहता है। उस वृत्ति के अस्तित्व में वह पदार्थ से विरत नहीं होता। इसलिए उस वृत्ति का नाम अविरति है। इस अवस्था में मनुष्य की दृष्टि पदार्थ के प्रति आकृष्ट होती रहती है। पदार्थ और धन के द्वारा होने वाले अनिष्ट परिणामों को जान लेने पर भी वह उन्हें छोड़ नहीं सकता। मूर्छा के कारण उसे भय सताता रहता है। जीवन की आकांक्षा और मृत्यु का भय भी मन को विचलित करता रहता है। सामाजिक जीवन में पारस्परिक टकरावों, संघर्षों और छीनाझपटी का कारण यह अविरति की मनोदशा ही है।
प्रमाद
प्रमाद का अर्थ है-विस्मृति । इससे आत्मा की, चैतन्य की विस्मृति होती है। इस अवस्था में मनुष्य का मन इन्द्रिय-विषयों के प्रति आकर्षित हो जाता है, शांत बने हुए क्रोध, मान, माया और लोभ फिर उभर आते हैं, जागरूकता समाप्त हो जाती है, करणीय और अकरणीय का बोध धुंधला हो जाता है।
प्रमाद का दूसरा अर्थ है-अनुत्साह । प्रमत्त अवस्था में संयम और क्षमा आदि धर्मों के प्रति मन में अनुत्साह आ जाता है, सत्य के आचरण में शिथिलता आ जाती है। इससे आध्यात्मिक अकर्मण्यता और अलसता की स्थिति बनी रहती है। वासना, भोजन आदि की चर्चा में जो आकर्षण होता है वह आध्यात्मिक विकास की चर्चा में नहीं होता।
कषाय
राग और द्वेष ये दो मूल दोष हैं। राग, माया और लोभ की प्रवृत्ति को तथा द्वेष, क्रोध और अभिमान की प्रवृत्ति को जन्म देता है। ये चारों क्रोध, मान, माया और लोभ-चित्त को रंगीन बना देते हैं. इसलिए इन्हें कषाय कहा
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