________________
आस्रव भावना
क्रियावाद : आस्रव
जीव अनन्त हैं। प्रत्येक जीव का अस्तित्व स्वतंत्र है। वह न किसी के द्वारा निर्मित है और न संचालित। वह अनिर्मित है और अपने ही परिणामों से संचालित है। उसमें दो प्रकार के पर्याय होते हैं-स्वाभाविक और नैमित्तिक । स्वाभाविक पर्याय निमित्त निरपेक्ष होते हैं। उससे जीव का अस्तित्व बना रहता है। नैमित्तिक पर्याय निमित्तों के आधार पर होते हैं। उससे जीव नाना रूपों में बदलता रहता है। निमित्त दो प्रकार के होते हैं-आंतरिक और बाह्य । राग और द्वेष-ये दो आंतरिक निमित्त हैं। जीव के असंख्य-प्रदेश (अविभागी अवयव) होते हैं। ये सब चैतन्य स्वरूप हैं। वे चैतन्यमय होने के कारण प्रभास्वर और निर्मल होते हैं। राग और द्वेष जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ मिश्रित हैं। स्वभाव से प्रभास्वर और निर्मल चैतन्य उसके योग से आवृत और मलिन रहता है। इस योग (चैतन्य और राग-द्वेष) का आदि-बिन्दु ज्ञात नहीं है। इसलिए यह संबन्ध अनादि माना जाता है। शरीरधारी जीव की परिणाम-धारा राग-द्वेष से युक्त होती है। राग-द्वेष युक्त परिणाम नए-नए पुद्गल परमाणुओं को आकर्षित करता रहता है। जीव की परिणाम-धारा कर्म-परमाणुओं के आकर्षण का हेतु बनती है। इसलिए उसे आस्रव कहा जाता है। कर्म-परमाणु को आकर्षित करने की क्रिया को भी आस्रव कहा जाता है। पुद्गल-परमाणुओं के आकर्षण का योग शारीरिक प्रवृत्ति से होता है। बाहरी पुद्गलों को आकर्षित करने वाले घटना के रूप में काययोग आस्रव बनता है। सभी कर्म-परमाणु काययोग के द्वारा ही आकर्षित होते हैं। जैसे तालाब में नाले से जल आता है वैसे ही काययोग के द्वारा कर्म के परमाणु भीतर आकर जीव-प्रदेश के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं। जैसे गीले कपड़े पर वायु द्वारा लाए हुए रजकण चिपकते हैं, वैसे ही राग-द्वेष से गीले बने हुए जीव पर काययोग द्वारा लाए हुए कर्म परमाणु चिपकते हैं। जैसे तपा हुआ लोहपिण्ड जलकणों को आत्मसात् कर लेता है वैसे ही कषाय से उत्तप्त जीव परमाणुओं को आत्मसात् कर लेता है।
आस्रव के पांच प्रकार हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।
मिथ्यात्व
ज्ञान के आवृत्त होने पर मनुष्य जान नहीं पाता। नहीं जानना अज्ञान है। दृष्टि मूढ़ होने पर मनुष्य जानता हुआ भी सम्यक् नहीं जानता, विपरीत जानता है। यह मिथ्यात्व है। इस अवस्था में इन्द्रिय-विषयों के प्रति तीव्र आसक्ति रहती है, क्रोध, मान, माया और लोभ प्रबलतम होते हैं, मानसिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org