________________
अमूर्त चिन्तन
__ हमारा शरीर आस्रव है, दरवाजा है। दरवाजा खुला होता है, तब कुछ भी आ सकता है, आंधी भी आ सकती है, धूल भी आ सकती है और हवा भी आ सकती है। दरवाजा बन्द होता है तो कुछ भी नहीं आ सकता। हमारा शरीर एक दरवाजा है, आस्रव है। नौका पानी में तैर रही है। छेद हो गये। नौका में पानी भर गया, वह डूबने लगी। नौका क्यों डूबने लगी ? क्योंकि वह आस्रव हो गई, आस्रव-सहित हो गयी। छेद हुआ कि पानी आ गया और भारी हुई कि डूबने लगी। उस समय यदि कुशल कर्णधार होता है, कुशल नाविक होता है यह सबसे पहले उन छेदों को भर देता है। पानी आना बन्द हो जाता है और जो पानी भीतर आ गया है, उसे उलीचकर फेंक देता है। नौका तैरने लग जाती है। .
यह शरीर नौका है। यह डूबने भी लगता है और तैरने भी लगता है। जब इसके सारे छिद्र खुल जाते हैं, आस्रव के मुख चौड़े हो जाते हैं, तो बाहर से इतना आता है, इतना आता है कि वह डूबने लग जाता है। यह डूबना नहीं है। यह डूबना उन आस्रवों और छिद्रों का डूबना है और वे साथ-साथ नौका को भी डूबा देते हैं। इन शरीर के छिद्रों को ढकना, आस्रवों को अनास्रव करना, छेदों को बन्द करना, यह हमारी साधना की प्रक्रिया है।
जैन साधक अशौच भावना के द्वारा शरीर के प्रति अनासक्त रहने का अभ्यास करते थे। महाराज श्रेणिक और महारानी धारिणी ने मेघकुमार से कहा-तुम प्रव्रजित नहीं हो सकते। मेघकुमार ने उत्तर दिया-क्या मैं इस शरीर के आधार पर यहां बना रहूं। मेरे शरीर की स्थिति क्या है ? यह पित्त का आस्रव है, शुक्र का आस्रव है, श्लेष्म का आस्रव है, दुनिया भर में जितने अशुद्ध पदार्थ होते हैं, उनका आस्रव है। एक दिन नष्ट हो जाने वाला है। क्या इस शरीर के आधार पर मैं अपनी शाश्वत की साधना को ठुकरा दूं ?
एत्थोवरए तं जोसमाणे अयं संधि ति अदक्खु ।
इस अर्हत् शासन में स्थित साधक शरीर को संयत कर यह कर्म-विवर (आत्रव) है, ऐसा देखकर आत्रव को क्षीण करता हुआ प्रमाद न करे।
संधि समुप्पेहमाणस्स एगायतणरयस्स इह विप्पमुक्कस्स णत्थि मग्गे विरयस्स...........
जो कर्म-विवर (आस्रव) को देखता है, वीतराग में लीन है, शरीर आदि के ममत्व से मुक्त है, हिंसा से विरत है, उसके लिए कोई मार्ग नहीं है। जन्म, जरा, रोग और मृत्यु-ये चार दु:ख के मार्ग हैं। विरत के लिए ये मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org