________________
आस्रव भावना
आस्रवों के बिना कर्मों का आकर्षण नहीं हो सकता और न कर्मों का एक विशेष संरचनात्मक रूप बन सकता है । हम पुद्गलों को आकर्षित करते हैं और एक विशेष प्रकार का उन्हें रूप देते हैं । ये दोनों काम भावचित्त के बिना या भावकर्म के बिना नहीं हो सकते, इसलिए हम भावचित्त पर, भावकर्म पर ज्यादा ध्यान देते हैं । राग-द्वेष का प्रत्येक क्षण कर्म - आकर्षण का या कर्म-बन्ध का क्षण है । हम साधना की दृष्टि से विचार करते हैं, तब इस बात से चिंतित न हों कि कर्म का बहुत आकर्षण होता है या हो रहा है। किन्तु जो राग-द्वेष का क्षण कर्म को आकृष्ट करता है उसके प्रति जागरूक हों । हम बहुत बार कहते हैं-जागरूक रहें, अप्रमत्त रहें । प्रश्न होता है कि किसके प्रति जागरूक रहें, किसके प्रति अप्रमत्त रहें ? हम उस क्षण के प्रति जागरूक रहें, जिस क्षण में राग-द्वेष उत्पन्न होता है । राग-द्वेष का क्षण हिंसा का क्षण है, चौर्य का क्षण है, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का क्षण है। जितने भी दोष हैं, उन सबका क्षण है राग-द्वेष का क्षण । राग-द्वेष का क्षण ही समूची कर्म-वर्गणाओं का क्षण है । इसलिए साधना के क्षेत्र में जागरूकता का अर्थ है- - उस राग-द्वेष के क्षण के प्रति जागरूक रहना, जो कर्मों को आकर्षित करता है और अनेक आचरणों के माध्यम से करता है ।
जागरूकता का अर्थ इतना ही नहीं है कि हम नींद न लें। श्रम करता है, वह पूर्ण जागरूक है, जागृत है । वह नींद कहां लेता है ? किन्तु साधना की दृष्टि से जागरूक रहने का अर्थ है - किसी भी क्षण में राग-द्वेष उत्पन्न न होने देना ।
भावकर्म द्रव्यकर्मों को प्रभावित करते हैं और द्रव्यकर्म (पौद्गलिक कर्म) भावकर्म को प्रभावित करते हैं। दोनों की एक ऐसी सन्धि है कि दोनों एक-दूसरे का परस्पर सहयोग करते हैं। दोनों एक-दूसरे को जीवनी-शक्ति दे रहे हैं। दोनों में एक समझौता है। भावकर्म द्रव्यकर्मों को जिला रहे हैं और द्रव्यकर्म भावकर्मों को जिला रहे हैं। साधना में यही करना है कि हम इन दोनों की सन्धि को छिन्न-भिन्न कर सकें, तोड़ सकें या हम दोनों में एक ऐसा विभेद पैदा कर दें जिससे कि भावकर्म एक ओर हो जाए और द्रव्यकर्म एक ओर हो जाए। दोनों में ऐसी भेदवृत्ति जाग जाए, जिससे कि अनादिकाल से चली आ रही उनकी सन्धि में दरार पड़ जाए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org