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अमूर्त चिन्तन
मनुष्य के पास प्रवृत्ति के साधन हैं-शरीर, वचन और मन । ये तीनों योग कहलाते हैं। योग का अर्थ है-प्रवृत्ति, चंचलता। सुख दुःख के हेतु
चार आस्रवों से चैतन्य मूञ्छित होता है। इसलिए वे दुःख के हेतु बनते हैं। योग अपने आप में दु:ख और सुख का हेतु नहीं है। यह मिथ्यात्व आदि चार आस्रवों में प्रवृत्त होता है तब दुःख का हेतु बन जाता है। इसके द्वारा कर्म-परमाणुओं का आस्रवण (आगमन) होता है, वह आस्रव है। कर्म परमाणु जीव के प्रदेशों के साथ चिपके रहते हैं, वह बन्ध है। कर्म-परमाणु बन्धन के बाद अपनी स्थिति के अनुपात से सत्ताकाल में रहते हैं, फिर विपाक को प्राप्त कर, उदय में आकर, निर्जीर्ण हो जाते हैं। कर्म के उदयकाल में प्राणी को दु:ख या सुख का अनुभव होता है। अध्यात्म की भाषा में आस्रव दु:ख या सुख का हेतु है। कर्म के उदय से होने वाली अनुभूति दु:ख या सुख है। आस्रव का निरोध होने पर दु:ख और सुख-दोनों के द्वार बन्द हो जाते हैं। उस स्थिति में आत्मिक सुख का अनुभव होता है। जब तक आस्रव की क्रिया और चंचलता रहती है तब तक मनुष्य दु:ख और पौद्गलिक सुख की अनुभूति के चक्र में जीता है। उसे सहज सुख का अनुभव नहीं होता। प्रत्येक जीव में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तशक्ति होती है। किंतु आस्रव के कारण यह अनन्त चतुष्टयी प्रगट नहीं हो पाती। इसके अस्तित्व-काल में ज्ञान-दर्शन आवृत, सुख विकृत और शक्ति सुप्त रहती है। जीव में जो अशुद्धि है वह स्वाभाविक नहीं है। वह सारी-की-सारी आस्रव-जनित है। इसके आधार पर ही जीव के दो विभाग बनते हैं-बद्ध और मुक्त। आस्रव युक्त जीव बद्ध और आस्रव रहित जीव मुक्त होता है। जब तक आस्रव-जनित वृत्तियां और कर्म रहते हैं तब तक आत्मा के मौलिक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता। चित्त की निर्मलता, एकाग्रता, तपस्या, प्रतिपक्ष भावना या ध्यान-साधना के द्वारा आस्रव की शक्ति को क्षीण करने पर ही आत्मा के स्वरूप की अनुभूति हो सकती है। संक्षेप में जैन दर्शन का सार यह है-आस्रव दु:ख का हेतु है और संवर सहज सुख का । कर्म का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ।
प्रश्न होता है कि कर्म के आकर्षण की प्रक्रिया और संश्लेष की प्रक्रिया के पीछे हेतु क्या है ? ये दोनों प्रवृत्तियां दो आस्रवों के द्वारा होती हैं। एक आस्रव का नाम है-योग और दूसरे आत्रव का नाम है-कषाय । योग आस्रव और कषाय आस्रव-ये दो आस्रव हैं, जिनके द्वारा कर्मों का आकर्षण और कर्मों
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