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अशौच भावना
मन्दिर भी है। अशुचि का दर्शन कर ममत्व से मुक्त हो और साथ में परम-शुद्ध, सनातन, शिव-आत्मा का दर्शन भी करे। केवल शरीर के प्रति घृणा का भाव प्रगाढ़ करने से प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
पुद्गलों के बाहरी संस्थान का सौन्दर्य देखकर उनमें मन आसक्त हो जाता है। चमड़ी के भीतर जो है, वह आकर्षक नहीं है। बाहरी संस्थान के साथ आंतरिक वस्तुओं का बोध करना, उन्हें साक्षात् देखना अनासक्ति का हेतु है। प्राणी के शरीर में रहने वाले अशुचि पदार्थ तथा मृत शरीर की दुर्गन्ध आदि का योग होने पर मूर्छा का भाव क्षीण हो जाता है। यही अशौच भावना का आशय है।
आचारांग में कहा है-जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो। -यह शरीर जैसा भीतर है वैसा बाहर है, जैसा बाहर है वैसा भीतर है। अंतो अंतो देहंतराणि पासति पुढोवि सवंताई। -पुरुष इस अशुचि शरीर के भीतर से भीतर देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है।
कुछ दार्शनिक अन्तस् की शुद्धि पर बल देते हैं और कुछ बाहर की शुद्धि पर। भगवान् महावीर एकांगी दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने दोनों को एक साथ देखा और कहा-केवल अन्तस् की शुद्धि पर्याप्त नहीं है। बाहरी व्यवहार भी शुद्ध होना चाहिए। वह अन्तस् का प्रतिफलन है। केवल बाहरी व्यवहार का शुद्ध होना ही पर्याप्त नहीं है, अन्तस् की शुद्धि के बिना वह कोरा दमन बन जाता है। इसलिए अन्तस् भी शुद्ध होना चाहिए। अन्तस् और बाहर-दोनों की शुद्धि ही धार्मिक जीवन की पूर्णता है।
चित्त को कामना से मुक्त करने का एक आलंबन है-शरीर की अशुचिता का दर्शन।
एक मिट्टी का घड़ा अशुचि से भरा है। वह अशुचि झरकर बाहर आ रही है। वह घड़ा भीतर से अपवित्र है और बाहर से भी अपवित्र हो रहा है।
यह शरीर-घट भीतर से अशुचि है। इसके निरन्तर झरते हुए स्रोतों से बाहरी भाग भी अशुचि हो जाता है।
यहां रुधिर है, यहां मांस है, यहां मेद है, यहां अस्थि है, यहां मज्जा है, यहां शुक्र है। साधक गहराई में पैठ कर इन्हें देखता है।
शरीर में अनेक अन्तर हैं। अन्तर का अर्थ है-विवर। साधक अन्तरों को देखता है। वह पेट के अन्तर (नाभि), कान के अन्तर (छेद), दाएं हाथ और पार्श्व के अन्तर तथा बाएं हाथ और पार्श्व के अन्तर, रोम-कूपों तथा अन्य अन्तरों को देखता है। इस अन्तर-दर्शन से उसे शरीर का वास्तविक
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