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अशौच भावना
साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह शरीर का सम्यक् दर्शन करे। आसक्ति का मूल शरीर है। शरीर के साथ सभी व्यक्ति बंधे हुए हैं। शरीर का ममत्व नहीं टूटता है तो साधना में प्रगति नहीं होती। अशौच भावना उस बंधन को शिथिल करती है, तोड़ती है। बुद्ध ने इसके लिए 'कायगता-स्मृति' का पूरा प्रयोग बतलाया है। कायगता-स्मृति' की विशेषता के सम्बन्ध में बुद्ध कहते हैं-'भिक्षुओ ! एक धर्म भावना को और बढ़ाना महासंवेग के लिए होता है, महाअर्थ (कल्याण) के लिए होता है, महायोगक्षेम (निर्वाण) के लिए होता है, महास्मृति-सम्प्रजन्य के लिए होता है, ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति के लिए होता है, इसी जीवन में सुख से विहरने के लिए होता है। विद्या-विमुक्तिफल के साक्षात्कार के लिए होता है।' कौन साधक धर्म ? 'कायगता-स्मृति ।' भिक्षुओ वे अमृत का परियोग करते हैं जो कायगत-स्मृति का परियोग करते हैं और भिक्षुओ, वे अमृत का परियोग नहीं करते जो कायगत-स्मृति का परियोग नहीं करते।'
कायगता-स्मृति में संलग्न भिक्षु की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है-'यह अरति (उदासी) और रति (काम भोगों की इच्छा)-इन्हें जो पछाड़ने वाला होता है, उसे अरति नहीं पछाड़ती। वह उत्पन्न अरति को हटा-हटा कर विहरता है। जाड़ा, गर्मी सहने वाला होता है। प्राण लेने वाली शारीरिक वेदनाओं को (सहर्ष) स्वीकार करने वाला होता है।'
__ आगम साहित्य में भी शरीर को अशुचि से उत्पन्न कहा है। महावीर गौतम को सम्बोधित कर कहते हैं- गौतम ! शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं,' इन्द्रिय और शरीरबल सब क्षीण हो रहा है। तू देख और क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।' मदिरा के घड़े को कितना ही धोओ. वह अपनी गंध को नहीं छोड़ता। ठीक उसी प्रकार शरीर को कितना ही स्वच्छ करो, वह शुद्ध नहीं होता। प्रतिक्षण अनेक द्वारों से अशुद्धि बाहर की ओर प्रवाहित हो रही है। मूढ़ मनुष्य उसमें शुद्धि का भाव आरोपित कर लेते हैं। किंतु विज्ञ व्यक्ति उसकी यथार्थता से परिचित होते हैं। साधक शरीर का सम्यक् निरीक्षण करे और उसकी आसक्ति को उखाड़कर अपने स्वरूप में अधिष्ठित बने। यद्यपि शरीर अपवित्र है, अशुचि है, किन्तु परमात्मा का
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