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अन्यत्व भावना
नहीं उछलते। बहुत बार कहा जाता है कि धन को साधन मत मानो। उसका संग्रह मत करो। किन्तु यह हो नहीं सकता। जब आदमी शरीर को साधन नहीं मानता तो फिर यह धन को साधन कैसे मानेगा ? वह शब्दों में भले ही दोहरा दे, पर यथार्थ में यह उसे स्वीकार्य तब होता है, जब ममत्व छूट जाता है, मार्ग दीख जाता है, कोई संदेह नहीं रहता, कोई भय नहीं रहता। उस स्थिति में ही यह ज्ञान विकसित हो सकता है, ज्ञाता और द्रष्टा का भाव विकसित हो सकता है।
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