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________________ अमूर्त चिन्तन जब शरीर की पकड़ होती है तभी प्रभाव होता है। शरीर की पकड़ जितनी मजबूत होगी, प्रभाव भी उतना ही गहरा होगा। शरीर की पकड़ छुटेगी, चैतन्य के प्रति जागरूकता बढ़ेगी तो शरीर का भार नहीं रहेगा। शरीर का ममत्व छोड़ देने पर, शरीर रहेगा, उस पर कुछ भी घटेगा, पर चैतन्य अप्रभावित रहेगा। जब प्राण और चेतना-दोनों भीतर चले जाते हैं, उनका समाहार हो जाता है, तब शरीर पड़ा है, उसे सांप काटे, कोई भी काटे, कुछ असर नहीं होगा चेतना पर। यह दूसरा पक्ष है। हमारी चेतना रूपान्तरित होती है प्रेक्षा के द्वारा। वह परिष्कृत और परिमार्जित होती है ज्ञाता-द्रष्टा भाव के द्वारा। उस स्थिति में दोनों प्रकार के रसायनों का प्रभाव नहीं होता। यदि होता है तो अत्यल्प मात्रा में। यह हमारी स्वतंत्रता का पक्ष है। महावीर ने कहा-'सहो, सहो। सदा सहन करते रहो।' यह बात तभी समझ में आ सकती है, जब सहने के साथ-साथ इसका भी अभ्यास करें कि हम विशिष्ट स्थान पर चेतना को कैसे केन्द्रित और नियोजित कर सकते हैं? जिस रोग को हम समस्या मानते हैं, वह हमारे लिए एक प्रयोग-भूमि बन जाता है। वह हमारे लिए एक प्रयोगशाला का काम करने लगता है। इस आध्यात्मिक प्रयोगशाला में हम जान सकते हैं कि रोग किसके हैं ? रोग किसे बाधा पहुंचा रहे हैं ? मैं कौन हूं ? इन्हें अलग-अलग समझने का मौका मिलता है। यह रहा रोग और यह रहा मैं। अन्यथा हम एक ही मान लेते हैं 'मैं रोगी हूं।' यह मानते रहेंगे तब तक रोग सताएगा। जब हम यह मान लेते हैं कि 'मेरा रोग नहीं', 'मैं रोगी हूं' तो हम रोग से अभिन्न हो गये। यदि 'मेरा रोग' यह मानते तो भी कुछ दूरी प्रतीत होती, किन्तु 'मैं रोगी' इसमें कोई दूरी नहीं, दोनों एक हो गए। इस अवस्था में रोग सताएगा ही। जब हमने रोग के बीच इतनी दूरी कर दी कि मैं केवल द्रष्टा हूं, ज्ञाता हूं, जानता हूं, देखता हूं कि यह रोग रहा। तो जानने-देखने वाला रोग से अलग हो गया। इस स्थिति में रोग स्वयं एक प्रयोगस्थल बन जाता है और उसमें से समाधान निकल आता है। आत्मा को अरुज कहा गया है। अरुज का अर्थ है-रोग रहित । आत्मा के कभी रोग नहीं होता। चेतना कभी रुग्ण नहीं होती। आत्मा रोगग्रस्त कभी नहीं होती। रोगग्रस्त होता है शरीर। यह भेद जब आत्मगत हो जाता है, यह दूरी जब स्थापित हो जाती है, तब समस्या का समाधान हो जाता है। भेद-विज्ञान जिस साधक में स्फोट होता है वह आत्मा को उपलब्ध हो जाता है और उस भूमिका पर पहुंचकर वह कहता है कि 'मैं शरीर नहीं हूं।' 'मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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