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एकत्व भावना
उसे तोड़ नहीं पाता, भेद नहीं पाता। अनुकूलता को सहन करना बहुत बड़ी समस्या है। अकेला होने वाला व्यक्ति, अकेलेपन की साधना करने वाला व्यक्ति सबसे पहले उस राग के बन्धन को तोड़ने की बात को सीख लेता है। समाज कभी अप्रियता के आधार पर नहीं जुड़ता। सम्बन्ध कभी अप्रियता के आधार पर नहीं बनते। दण्डशक्ति का उपयोग करने वाला दूसरे को कष्ट दे सकता है, दु:खी बना सकता है, पर सम्बन्ध नहीं बना सकता। सारे-के-सारे सम्बन्ध जुड़ते हैं प्रेम और आत्मीयता के आधार पर । जो प्रेम धागा है, उसी के आधार पर राग के सम्बन्ध स्थापित होते हैं। किन्तु साधना और ध्यान करने वाला व्यक्ति इस सचाई को समझ लेता है कि इस धागे के आधार पर हमने यह सम्बन्ध स्थापित किया है किन्तु यह प्रेम-स्नेह का धागा भी अन्तिम सचाई नहीं है। अन्तिम सचाई है कि 'मैं-मैं' और 'तू-तू' । बहुत कटु बात लग सकती है, अव्यावहारिक लग सकती है, किन्तु हम इस सचाई को झुठला नहीं सकते।
हम अकेलेपन की सचाई को न भूलें। जो इस सत्य को समझ लेता है वह सत्य और शांति को उपलब्ध हो सकता है, दुःखों से बच सकता है। एक बहुत बड़ा सूत्र है मनोबल को बढ़ाने का-'एकला चलो।' अक्रियता का अनुभव
एकत्व सचाई है। किन्तु मनुष्य ने इसको झुठलाने का जितना प्रयत्न किया उतना प्रयत्न शायद किसी और दिशा में नहीं किया। झुठलाने का प्रयत्न निरंतर चलता रहा और वह प्रयत्न चलते-चलते आज इस बिन्दु पर पहुंच गया कि समाज ही परम सत्य, ध्रुव सत्य बन गया। आदमी ने मान लिया कि समाज ही अन्तिम सत्य है, व्यक्ति तो समाज का एक पुर्जा मात्र है। एक महायंत्र का छोटा-सा पुर्जा है व्यक्ति। इसके अतिरिक्त व्यक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं है। इस मान्यता ने व्यक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व को ही समाप्त कर डाला। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर भारी कुठाराघात हुआ। क्या व्यक्ति का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है ? क्या व्यक्ति समाज का एक पुर्जा मात्र है ? जब व्यक्ति समाज का पुर्जा ही है तब फिर समाज के द्वारा जो प्राप्त होता है उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। किन्तु कठिनाई यह है कि समाज से जो उपलब्ध होता है उसे व्यक्ति सहर्ष स्वीकार नहीं करता। तत्काल उसका मानसिक तनाव बढ़ जाता है। वह भीतर में अनुभव करता है-मैं व्यक्ति हूं। मेरी स्वतंत्र सत्ता है। मेरा स्वतंत्र अस्तित्व है। एक ओर स्वतंत्र अस्तित्व की बात मन से निकलती नहीं और दूसरी ओर सामुदायिकता का
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