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एकत्व भावना
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दिया। अब मेरा 'मैं' अर्थात् 'मेरा प्रभु' मुझ से छुट गया।' कितना गहरा रहस्य है इस अभिव्यक्ति में ? इस रहस्य को वे ही समझ सकते हैं जो अकेले जीने की कला जानते हैं। समूह में बन्धा हुआ व्यक्ति न तो इस रहस्य को समझ पाता है और न अकेलेपन के सुख का अनुभव कर सकता है।
एकत्व भावना की अनुप्रेक्षा करने से द्वैत से उभरने वाली समस्या का समाधान हो सकता है। .
तीर्थकर साधना के प्रारम्भ में अकेले रहते हैं, किन्तु केवलज्ञान उपलब्ध होने के बाद वे संघ में रहते हैं, उपदेश देते हैं, विहार करते हैं और जन सम्पर्क करते हैं। प्रश्न हो सकता है कि वे ऐसा क्यों करते हैं ? उत्तर सीधा है-'सकम्मसेसेण' उनका भी कर्म-भोग शेष रह जाता है, कुछ कर्म बच जाते हैं। उन शेष बचे हुए अघात्य कर्मों को समाप्त करना और जनता को जागृत करना, यही उद्देश्य है तीर्थंकरों द्वारा संघ-व्यवस्था के प्रवर्तन का।
साधक के लिए यह भी आवश्यक है कि वह जिस मार्ग को उपलब्ध करता है, उस पर चलने के लिए औरों को भी प्रेरित करे। उसका यह प्रयत्न भी बचे-खुचे संस्कारों को समाप्त करने का प्रयत्न है। मूल बात यह है कि साधक को कोई आग्रह नहीं होना चाहिए। उसके मार्ग-दर्शक उसे जो पथ दिखाएं, वह अपनी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ उस पथ पर चले। इस क्रम से वह भीड़ में भी अकेला रह सकता है। रास्ता यदि सही नहीं है तो अकेलेपन में भी वह भीड़ से घिरा रहता है। इसलिए मानसिक दृष्टि से अकेलेपन का अनुभव ही निरापद मार्ग है। सत्य का सार्वभौम स्वरूप
___ अध्यात्म का एक महान् सूत्र है-समूह में रहते हुए भी एकांत का अनुभव करना। साधना करने वाले व्यक्ति के लिए परम वांछनीय है। जिस व्यक्ति ने अकेलेपन का अनुभव किया, उसने सचमुच अपनी चेतना को बदल दिया, अपने व्यक्तित्व का रूपांतरण कर लिया।
___रूस के महान् साधक गुर्जिएफ तीन महीने का प्रयोग करवाते थे कि एक हॉल में १०,२०,३० आदमी एक साथ रहें। साथ में खाएं-पीएं जीएं, पर निरंतर 'मैं अकेला हूं' इस बात का अनुभव करते रहें। इस एकत्व-अनुप्रेक्षा के सूत्र को उन्होंने काम में लिया। सत्य पर किसी का अधिकार नहीं होता। सत्य सार्वभौम होता है।
हिन्दुस्तान का व्यक्ति हो या रूस का व्यक्ति हो, चाहे दुनिया के किसी कोने में जन्म लेने वाला व्यक्ति हो, जो अध्यात्म की भूमिका में जाता है, जो
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