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एकत्व भावना
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पर होने वाली आसक्ति क्षीण हो जाती है। संयोग हमारी व्यावहारिक सचाई है। हम उसका अतिक्रमण नहीं कर सकते, किन्तु इस वास्तविकता को भी नहीं भुला सकते कि अन्तत: आत्मा उन सबसे भिन्न है।
“एगो मे सासओ अप्पा, णाणदसणलक्षणो। सेसा मे बाहिरा भावा, सब्वे संजोगलक्खणा।।'
ज्ञान-दर्शन स्वरूप आत्मा शाश्वत है। यही मैं हूं। शेष सांयोगिक पदार्थ मेरे से भिन्न हैं। वे 'मैं' नहीं हूं।
दूसरों के साथ अपने को इतना संयुक्त न करें कि जिससे स्वयं के होने का पता ही न चले। इस एकत्व भावना में साधक अपने को समस्त संयोगों से पृथक् देखता है। प्लोटिस ने कहा है-'अकेले ही अकेले के लिए उड़ान है।' नमि राजर्षि ने कहा-'संयोग ही दु:ख है। दो में शब्द होते हैं, अकेले में नहीं।' रानियां चन्दन घिस रही थीं। चूड़ियों के शब्द कानों में चुभ रहे थे। नमि राजर्षि ने कहा-'बन्द करो।' रानियां हाथ में एक-एक चूड़ी रख चन्दन घिसने लगीं। शब्द बन्द हो गया। नमि राजर्षि ने पूछा-'क्या चन्दन घिसना बन्द कर दिया ?' उत्तर मिला-'नहीं, घिसा जा रहा है।' तो शब्द क्यों नहीं हो रहा है, नमि ने पूछा। तब कहा-हाथ में एक-एक चूड़ी है। एक चूड़ी कभी शब्द नहीं करतीं। यह सुनते ही तत्क्षण वे प्रतिबुद्ध हो गये और साधना के पथ पर चल पड़े। अकेला कौन ?
___ आचार्य भिक्षु ने एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया। उन्होंने कहा-'गण में रहूं निरदाव अकेलो, किण स्यूं ही नहीं बांधू जील्लो-'मैं गण-समुदाय में रहूंगा, पर अकेला रहूंगा। किसी के साथ गठ-बन्धन नहीं करूंगा।' संघ में रहते हुए अकेले रहना-एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। यह साधना का परम रहस्य है। हम सर्वथा अकेले नहीं हो सकते। व्यक्ति सोच सकता है कि वह जंगल में जाका तो अकेला हो सकता है। कभी नहीं हो सकता। जंगल में जाने वाला ते इतनी भीड़ से घिर जाता है कि गांव में रहने वाला भी नहीं घिरला। हम अकेले कैसे हो सकते हैं, जब हमने अपने भीतर हजारों-हजारों संस्कार पाल रखे हैं। मस्तिष्क में इतनी भीड़ है कि जिसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। जब तक यह मस्तिष्क खाली नहीं हो जाता तब तक आदमी अकेला नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता।
अकेला होने का एकमात्र उपाय है-इस सचाई को स्वीकार करना कि
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