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________________ एकत्व भावना आदमी अपने बाहरी वातावरण में अकेला नहीं है। वह सामुदायिक जीवन जीता है और सबके बीच में रहता है, किन्तु वह सब बातों में सामुदायिक नहीं है । सामुदायिक जीवन के प्रवाह से आने वाली समस्याओं से अपने मन को खाली वही रख सकता है जिसे व्यावहारिक सम्बन्धों के बीच अपने अस्तित्व की अनुभूति होती है । वह बाहरी समस्याओं का सामना करते हुए भी अपने अन्तस् में समस्या से मुक्त रहता है । बाहर के वातावरण में, समुदाय के बीच में रहते हुए भी वह अन्त में व्यस्तता से मुक्त रहता है 1 सामाजिक प्राणी सहयोग लेता है और सहयोग देता है । वह अकेला जीवन नहीं जी सकता। सबका सहयोग लेता है तो समाज चलता है । सामाजिक जीवन जीते हुए भी लोग इस सचाई को भूल जाते हैं कि अन्ततः व्यक्ति अकेला है। ध्यान करने वाले साधक को इस सचाई से बहुत परिचित रहना है । इस अनुप्रेक्षा को बार-बार दोहराना है। जिसका यह आलम्बन पुष्ट हो जाता है- आत्मा अकेली है, व्यक्ति अकेला है-उसे सहयोग न मिलने पर भी कोई कष्ट नहीं होगा, क्योंकि उसका चित्त इस भावना से पूर्णरूपेण भावित है । वह परिस्थिति के आने पर भी टूटेगा नहीं । यदि वह भावना चित्त में स्थित नहीं है, और व्यक्ति सुनता है कि सबने उसका साथ छोड़ दिया है, तो वह विक्षिप्त बन जाएगा, पागल हो जाएगा। यदि चित्त सचाई से भावित रहे तो ऐसी घटना घटने पर भी आदमी विचलित नहीं होता, वह संभला रहता है । जब सब साथ में कार्य करते थे, वह आश्चर्य की बात नहीं है । अब सब बिछुड़ गए या सहयोग खींच लिया, यह भी आश्चर्य की बात नहीं है । आश्चर्य की बात यह है कि ऐसी घटनाएं प्रतिदिन घटती रहती हैं, फिर भी आदमी आंख मूंदकर सचाई की अवहेलना करता जा रहा है। मैं अकेला हूं' - यह है एकत्व अनुप्रेक्षा । आसक्ति द्वैत में पैदा होती है। अद्वैत की भावना पुष्ट होने पर वह विलीन हो जाती है। उपनिषद् का स्वर है - खुत्र को मोह : क: शोक: एकत्वमनुपश्यतः' - जो एकत्व को देखता है उसे क्या मोह होगा औ क्या शोक होगा ? एकत्व की भावना का दृढ़ अभ्यास करने पर शरीर उपकरण आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only , www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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