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अमूर्त चिन्तन
सामाजिकता का ही संस्कार है और यह सोचता है कि जो सबको होगा, वह मुझे होगा । यह सामुदायिकता एक सघन अन्धकार में ले जाने की दिशा बन जाती है । जो व्यक्ति दूसरों में ही अपना त्राण और शरण खोजता है वह अपने आप में शून्य हो जाता है। वह सोचता है - यह मुझे बचा लेगा । वह दूसरों के पीछे-पीछे चलता है । वह स्वयं कभी अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयत्न नहीं करता । यदि ये सचाइयां सामाजिक व्यक्ति में आ जाएं तो समाज का चित्र नया हो जाता है । उसका ऐसा रूप बन जाता है, जैसा कभी नहीं बना था । आध्यात्मिक भूमिका पर जिस समाज की संरचना होगी और इन सचाइयों के आधार पर जिस समाज का ढांचा खड़ा होगा, वह एक क्रांतिकारी, व्यवस्थित, शांतिप्रिय और मैत्री प्रधान समाज होगा।
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