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भव भावना
इस दुनिया में सब प्राणी समान नहीं हैं और सब मनुष्य भी समान नहीं हैं। सबकी बुद्धि, वैभव और क्षमता भिन्न-भिन्न है। जिसके पास ये साधन होते हैं, उसका मन गर्व से भर जाता है और जिसके पास ये नहीं होते हैं, उसमें हीन भावना पनपती है। इस दोहरी बीमारी की चिकित्सा भव-भावना है। यह संसार परिवर्तनशील है। इसमें कोई भी व्यक्ति निरन्तर एक स्थिति में नहीं रहता। एक जन्म में एक व्यक्ति अनेक स्थितियों का अनुभव कर लेता है। अनेक जन्मों में तो वह जाने क्या-क्या अनुभव करता है। जो व्यक्ति इस परिवर्तन की भावना से भावित होता है, उसके मन में गर्व या हीन भावना की बीमारी पैदा नहीं होती।
आज के वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करते हैं कि विश्व में पदार्थ सर्वथा नष्ट नहीं होते, केवल परिवर्तन होता रहता है। धार्मिक सदा से ही यह कहते आए हैं कि जीव और अजीव, चेतन और जड़-ये दो स्वतन्त्र द्रव्य हैं। यह सम्पूर्ण विश्व इन दोनों की सृष्टि है। ये दोनों अनादि हैं। संसारी आत्मा विजातीय तत्त्व से सर्वथा मुक्त नहीं होता, उसे संसार में भ्रमण करना होता है। भव-भावना में साधक यह देखता है, अनुभव करता है कि मैं इस संसार में कब से भ्रमण कर रहा हूं। ऐसी कोई योनि नहीं है जहां मैं जन्मा नहीं हूं। मैं प्रत्येक गति में अनेकश: उत्पन्न हो चुका हूं। क्या मैं इस प्रकार भ्रमण करता रहूंगा ? वह योनियों में विविध कष्टों को देखता है। वह इस भव-भ्रमण के बन्धन को तोड़ना चाहता है। राग और द्वेष भव-भ्रमण के मुख्य हेतु हैं। जब तक ये विद्यमान रहते हैं तब तक आत्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रगट नहीं होती। विविध योनियों में विविध रूपों में भव-भ्रमण का चिंतन करना भव-भावना है। संसार : एक अनुचिन्तन
संसार अनुप्रेक्षा का अर्थ है-संसार की नाना परिणतियों को जानना, विविध परिवर्तनों को जानना, जन्म और मृत्यु के चक्र से बराबर परिचित रहना।
कोई भी द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के चक्र से मुक्त नहीं है। जिसका अस्तित्व है वह उत्पन्न होता है और नष्ट होता है, फिर उत्पन्न
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