SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमूर्त चिन्तन व्यवहार कर रहा है ? उस व्यवहार के कारण कोई दुःखी नहीं होता, दुःखी होता है नियम की विस्मृति के कारण । व्यक्ति जब व्यवहार को, पदार्थ को और व्यक्ति को अन्तिम सत्य मान लेता है, त्राण मान लेता है तब उसे दु:खी होना पड़ता है। यह है अशरण अनुप्रेक्षा-व्यवहार में अनेक पदार्थों को त्राण मानते चलें, किन्तु सचाई को न भूलें कि वास्तविक या अन्तिम त्राण अपना ज्ञान, अपना दर्शन, अपना आचरण तथा अपना व्यवहार होता है। अशरण : एक सचाई यह भावना हमारे उन संस्कारों पर प्रहार करती है जो बाहर का सहारा ताकते हैं। यदि मनुष्य की समझ में यह तथ्य आ जाए कि अंतत: मेरा शरण कोई नहीं है, तब सहज की बाह्य वस्तु-जगत् की पकड़ ढीली हो जाती है। आदमी धन, परिवार, स्त्री, पुत्र, मित्र, मकान आदि सबको पकड़ता है। वह समझता है कि अन्त में कोई न कोई मुझे अवलम्बन देगा। यह भ्रम ही संग्रह का हेतु बनता है। धर्म कहता है- 'कोई त्राण नहीं है।' बाल्मीकि ने जब इस सत्य को जाना तब वह एक क्षण में उससे मुक्त हो गया। अनाथी मुनि ने जब देखा-कोई मुझे रोग से मुक्त नहीं कर पा रहा है। सब असफल हो गए। तब दृष्टि भीतर की तरफ मुड़ी और देखा-जो है, रोग उससे दूर है, मृत्यु उससे दूर है, सब कुछ उससे दूर है तो क्यों नहीं उसे ही अपना शरण बनाऊं। वह उसकी खोज में चला गया। सम्राट श्रेणिक ने कहा- 'मैं तुम्हारा मालिक बनूंगा।' अनाथी मुनि ने कहा-'तुम मेरे मालिक क्या बनोगे? पहले अपने खुद के मालिक बनो। अभी जिनके मालिक हो उनके गुलाम भी हो। मैंने मालिक खोजा है, वह अपने भीतर है। जिस दिन तुम भी खोज लोगे, यह मालकियत टूट जाएगी और एक नई मालकियत का जन्म होगा।' डेनमार्क के एक विचारक ने लिखा है-'असली चिन्ता तो तब पकड़ती है जब तुम्हें लगता है कि पैर के नीचे से जमीन खिसक गई। यही एक ऐसा क्षण है जो भविष्य का फैसला करता है। किन्तु यदि इसके पूर्व में सचाई का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया हुआ हो तो प्राय: व्यक्ति भविष्य को अन्धकार-पूर्ण बना लेते हैं। वे मरते क्षण में शरीर को छोड़ रहे हैं किन्तु वासना अपने ही लोगों और वस्तुओं के आस-पास चील की तरह मंडराती रह जाती है और प्राणी मर कर पुन: उसके ही इर्द-गिर्द पैदा हो जाता है। महावीर, बुद्ध आदि ने कहा है-'अपनी ही शरण में जाओ।' धम्म सरणं पवज्जामि-स्वभाव की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy