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________________ अशरण भावना मनुष्य अपूर्ण है। वह अपूर्ण है, इसलिए बाह्य वस्तुओं के द्वारा पूर्ण होने का प्रयत्न करता है। उसे दु:ख, अशान्ति, दरिद्रता आदि अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वह उस संघर्ष में विजयी होने के लिए दूसरों का सहारा चाहता है, त्राण और शरण की अपेक्षा रखता है। सामाजिक जीवन में त्राण और शरण मिलती भी है किन्तु यह तात्कालिक सत्य है। त्रैकालिक सत्य यह है कि अपने पुरुषार्थ पर आदमी निश्चित रूप से भरोसा कर सकता है। वस्तुत: त्राण या शरण अपने पुरुषार्थ में ही निहित है, अन्यत्र नहीं। इस अन्तिम सचाई के आधार पर स्वयं में स्वयं का त्राण खोजना और दूसरों के त्राणदान में ऐकान्तिक व आत्यन्तिक कल्पना न करना अशरण भावना है। इस भावना से भावित मनुष्य का कर्तव्य प्रबल हो उठता है और दूसरों के द्वारा विश्वासघात होने पर उसका धैर्य विचलित नहीं होता। जो अपने अस्तित्व को नहीं जानता, वह कहीं भी सुरक्षित नहीं हो सकता। धन, पदार्थ और परिवार-ये सब अस्तित्व से भिन्न हैं। जो भिन्न है, वह कभी भी त्राण नहीं दे सकता। . भगवान महावीर ने कहा-अशरण को शरण और शरण को अशरण मानने वाला भटक जाता है। अपनी सुरक्षा अपने अस्तित्व में है। स्वयं की शरण में आना ही अशरण अनुप्रेक्षा का मूल मर्म है। ध्यान साधक बहुत जागरूक रहता है। वह भ्रांतियों को तोड़ता रहता है। यह एक बहुत बड़ी भ्रांति है कि आदमी हर एक को शरण मान लेता है। व्यवहार में ऐसा मानना पड़ता है, पर यह अन्तिम सचाई नहीं है। हर एक चीज त्राण नहीं होती। हमारा यह विवेक स्पष्ट होना चाहिए कि हम व्यवहार को अन्तिम सचाई न मानें। व्यवहार व्यवहार होता है और यथार्थ यथार्थ होता है। व्यवहार की सचाई है-जब तक स्वार्थ जुड़ा रहता है तब तक एक-दूसरे के लिए त्राण या शरण बने रहते हैं। जहां स्वार्थ को धक्का लगा कि त्राण समाप्त हो जाता है, शरण समाप्त हो जाती है। वह पश्चात्ताप करता है-अरे ! मैंने इसके पालन-पोषण के लिए कितना किया, आज यह मेरे साथ ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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