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अनुप्रेक्षा और भावना
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हम साधना की दृष्टि से विचार करें। जो व्यक्ति साधना के क्षेत्र में प्रवेश करता है, उसे सबसे पहले ज्ञान - भावना से अपने आपको भावित करना होगा । भावना का अर्थ विचारों की आवृत्ति नहीं है । भावना का अर्थ है-विचारों की स्थापना, विचारों का दृढ़ीकरण । एक ही बात को बार-बार दोहराते रहें, वह भावना बन जाएगी, उससे भावित हो जाएंगे। एक आदमी दिन में दस-पन्द्रह बार दरवाजा खोलता है, बन्द करता है। वह उस क्रिया से भावित होता है, प्रभावित होता जाता है। जैसे ही वह घर में प्रवेश करता है, काम हो या न हो, उसका ध्यान उसी क्रिया की ओर जाता है। वह दरवाजा खोले या न खोले, किन्तु उसकी स्मृति उसी क्रिया में संलग्न हो जाती है । क्योंकि वह उससे भावित हो गया । व्यक्ति दोनों से प्रभावित होता है- विचार से भी प्रभावित होता है और कार्य से भी प्रभावित होता है। विचार और कार्य को दोहराना भावना का मूल है ।
प्रश्न है कि भावना के द्वारा हम अपने-आपको कैसे बदल सकते हैं ? प्रक्रिया इस प्रकार है - सबसे पहले आप अपने ध्येय का चुनाव करें। यह निर्णय करें कि मुझे यह बनना है, यह करना है। मुझे कवि बनना है, दार्शनिक बनना है, लेखक बनना है, साहित्यकार बनना है - कुछ भी बनना है । जो बनना है, वह ध्येय हो गया । जो ध्येय बना है उसकी क्रियान्विति के लिए भावना का अभ्यास करें । अभ्यास कब और कैसे करें - यह प्रश्न होता है । एकान्त में चले जाएं। शरीर को शिथिल कर बैठ जाएं। मन भी शिथिल हो, तनाव न हो, आकुल व्याकुल न हो। यह प्रारम्भिक स्थिति है । यह आवश्यक है । जो ध्येय हमने चुना है, वह स्थूल मन से हटकर अवचेतन मन में नहीं पहुंचेगा तब तक 'होने की' भावना सफल नहीं होगी। हम कह सकते हैं- 'हमने ऐसी भावनाएं की, भावनाओं का अभ्यास किया, पर हम सफल नहीं हुए।' कहीं समझने की भूल हो रही है। भावना का तात्पर्य है - चेतन मन को भुला देना और अवचेतन मन को जागृत कर देना । चेतन मन के विकल्प को अवचेतन मन की धरोहर बना देना, अवचेतन मन में उसे स्थापित कर देना, यह है भावना | जब तक अपनी बात अवचेतन मन तक नहीं पहुंचेगी, हजार बार, दस हजार बार प्रयत्न करें, शब्द दोहराते जाएं, सफलता नहीं मिलेगी । सफल होने के लिए शरीर का विसर्जन करना होगा, शरीर को बिलकुल शिथिल कर देना होगा। चेतन मन को भी शांत करना होगा। उसके बाद अपने ध्येय को दोहराते रहें, पहले मध्यम आवाज में, फिर तेज आवाज में ।
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