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अमूर्त चिन्तन
भावना और संकल्प के सहारे उस बैल को परास्त कर भूमि पर पटक देता है । उसकी भावना होती है- 'मैं बैल के साथ लडूंगा। मैं बैल को अवश्य परास्त करूंगा।' इस भावना के सहारे वह इतनी शक्ति अर्जित कर लेता है कि वह भयंकर और आक्रामक बैल को शांत कर देता है, मानो कि वह बकरी हो गया है । यह प्रयोग आज भी हो रहा है, अतीत में भी होता था, ऐसी बात नहीं है । आज भी कुछ व्यक्ति इसका प्रयोग करते हैं ।
एक मठ था। वहां अनेक छोटे-बड़े साधक साधना का अभ्यास करते थे। वहां एक दंगल (कुश्ती) का आयोजन रखा। दो पहलवान आमंत्रित किये गए। एक तगड़ा और बलिष्ठ था। दूसरा पतला और कम शक्तिशाली था । दंगल प्रारंभ हुआ। बलिष्ठ पहलवान ने पतले-दुबले पहलवान को चित्त कर दिया । साधकों के मन में एक विकल्प उठा । उन्होंने पतले पहलवान को सहयोग देना चाहा। कुछेक साधक आंख मूंदकर इस भावना में तन्मय हो गए कि इसकी विजय होनी ही चाहिए । यह पतला पहलवान जीतना ही चाहिए । कुछ समय बीता। सबके देखते-देखते दुबले-पतले पहलवान ने उस तगड़े पहलवान को पछाड़ दिया । वह उसकी छाती पर जा बैठा ।
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भावना दूसरों तक पहुंचाई जा सकती है। दूसरों पर भी उसका प्रभाव डाला जा सकता है। दूसरों की कठिनाइयों को शांत करना, रोग मिटाना, दूसरों का हृदय परिवर्तन करना, दूसरों के विचारों को बदलना - ये सारे भावना के ही प्रयोग हैं। भावना के द्वारा ये किये जा सकते हैं। भावना के माध्यम से स्वयं को बदला जा सकता है, दूसरों को बदला जा सकता है, आस-पास के व्यक्ति को बदला जा सकता है, वातावरण को बदला जा सकता है। एक व्यक्ति का शरीर दुर्बल है, शरीर को स्वस्थ करने के लिए भावना की जा सकती है। एक का मस्तिष्क दुर्बल है, उसे स्वस्थ करने के लिए भावना की जा सकती है। एक व्यक्ति की आंखें कमजोर हैं, हृदय दुर्बल है, भावना अपवित्र है - इन सबको स्वस्थ करने के लिए भावना की जा सकती है। अनगिनत भावनाएं की जा सकती हैं। अनगिनत संकल्प किए जा सकते हैं। आज के चिकित्सक, विशेषकर जर्मनी के चिकित्सक, रोगी को दवा की अपेक्षा 'ऑटो- सजेशन' के द्वारा रोग - मुक्त करने का प्रयत्न करते हैं । वे कहते हैं - जंगल में चले जाओ। वहां किसी वृक्ष के नीचे बैठकर समाधिस्थ हो जाओ और अपने आपको यह सुझाव दो कि 'मैं स्वस्थ हूं', 'मैं स्वस्थ हो रहा हूं ।' उसका मानना है कि इस पद्धति से व्यक्ति रोग मुक्त होकर स्वस्थ हो जाता है ।
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