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________________ अनुप्रेक्षा और भावना फ्रांस की एक घटना है। एक अमेरिकी युवक वहां आया। एक परिवार के साथ ठहरा। परिवार के साथ उसका गाढ़ सम्पर्क हो गया। उस परिवार में एक वयस्क कन्या थी। युवक का उसके साथ सम्पर्क बढ़ा। दोनों प्रेमसूत्र में बंध गए। अब विवाह का प्रश्न सामने आया। युवक ने कहा-'अभी मैं विवाह नहीं कर सकता। जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा न हो जाऊं तब तक यह भार मैं वहन नहीं कर सकता। मैं आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होकर ही विवाह करूंगा, पहले नहीं।' लड़की ने स्वीकार कर लिया। युवक अमेरिका चला गया। लड़की फ्रांस में ही रही। लड़की के मन में एक विचार आया-पांच-सात वर्ष बाद जब वह युवक मेरे साथ शादी करने आयेगा, तब यह न हो जाए कि मेरा रूप-रंग फीका पड़ जाए, मेरे यौवन का उभार शिथिल हो जाए। उसने प्रतिदिन भावना प्रारम्भ की। वह एक कांच के सामने खड़ी हो जाती और यह भावना करती-'आज जैसी हूं, वैसी ही रहूं।' इस भावना में तन्मय, एकाग्र हो जाती। पन्द्रह वर्ष बीत गए। युवक अपने पैरों पर खड़ा हुआ। उसकी आर्थिक स्थिति सुधरी। वह आत्म-निर्भर हो गया। युवती की स्मृति उसे पल-पल रहती थी। वह फ्रांस आया। उसके मन में अनेक विकल्प उठ रहे थे। उसने सोचा-लड़की की स्थिति क्या हुई होगी? वह कैसी होगी ? क्या होगा उसका रूप-रंग ? वह लड़की से मिला। उसने पाया कि लड़की के शरीर का लावण्य, उसकी सुन्दरता और कमनीयता वैसी ही है जैसी पन्द्रह वर्ष पहले थी। रत्ती भर भी अन्तर नहीं था। वह विवाह सूत्र में बंध गया। दोनों प्रसन्न हुए। यह भावना का चमत्कार था। यह भावना-योग है। जो व्यक्ति जिस प्रकार की भावना से अपने आपको भावित करता है, वह उसी रूप में बदल जाता है। न जाने दुनिया में कितने प्रयोग ऐसे होते हैं जो भावना के होते हैं। जैन परम्परा में भावना का विशेष महत्त्व है। इसे आध्यात्मिक मूल्य दें या न दें, किंतु यह तथ्य स्पष्ट है कि भावना के आधार पर व्यक्ति बनता-बिगड़ता है। जापान में ध्यान सम्प्रदाय (झेन) के साधक भावना के अनेक प्रयोग करते हैं। वे अखाड़े में उतर जाते हैं और भयंकर खूखार बैल के साथ लड़ते हैं। वे निहत्थे उतरते हैं अखाड़े में। उनके पास कुछ भी नहीं होता। लाठी भी नहीं होती। बैल दौड़ता हुआ सामने आता है। उसे लाल झंडियां दिखाई जाती हैं। लाल कपड़ा देखते ही बैल भड़क उठता है। वह पूरे वेग से व्यक्ति की ओर झपटता है। वह भयंकर रूप से आक्रमण करता है। एकदम पतला-दुबला साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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