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________________ २२४ अमूर्त चिन्तन से मानसिक कमजोरी और उससे हिंसा की वृत्ति बढ़ती है। अहिंसा के मार्ग में सिर्फ अंधेरे का डर ही बाधक नहीं बनता, और भी बाधक बनते हैं। मौत का डर, कष्ट का डर, अनिष्ट का डर, अलाभ का डर, जाने-अनजाने अनेक डर सताने लग जाते हैं, तब अहिंसा से डिगने का रास्ता बनता है। पर निश्चित लक्ष्य वाला व्यक्ति नहीं डिगता। वह जानता है-ऐश्वर्य जाए तो चला जाए, मैं उसके पीछे नहीं हूं। वह सहज भाव से मेरे पीछे चला आ रहा है। यही बात मौत के लिए तथा औरों के लिए है। मैं सच बोलूंगा। अपने प्रति व औरों के प्रति भी सच बोलूंगा। अपने प्रति व औरों के प्रति भी सच रहूंगा। फिर चाहे कुछ भी क्यों न सहना पड़े ! अहिंसक को धमकियां और बन्दर 'घुड़कियां' भी सहनी पड़ती हैं। वह अपनी जागृत वृत्ति के द्वारा चलता है, इसलिए नहीं घबराता। इन सब बातों से भी एक बात और बड़ी है। वह है-कल्पना का भय । जब यह भावना बन जाती है-अगर मैं यों चलूंगा तो अकेला रह जाऊंगा, कोई भी मेरा साथ नहीं देगा, यह अहिंसा के मार्ग में कांटा है। अहिंसक को अकेलेपन का डर नहीं होना चाहिए। उनका लक्ष्य यही है, इसलिए वह चलता चले। आखिर एक दिन दुनिया उसे अवश्य समझेगी। महात्मा ईसा का जीवन इसका ज्वलन्त प्रमाण है। आचार्य भिक्षु भी इसी कोटि के महापुरुष थे। दूसरों के आक्षेप, असहयोग यदि की उपेक्षा कर निर्भीकता से चलने वाला ही अहिंसा के पथ पर आगे बढ़ सकता है। ____ भय भय को उत्पन्न करता है, अभय अभय को। सदृश की उत्पत्ति का जैविक सिद्धांत मनुष्य की मानसिक वृत्तियों पर भी घटित होता है। मनोविज्ञान की दृष्टि से संवेगात्मक व्यवहार और संवेगात्मक अनुभव-ये दोनों हाइपोथेलेमस से पैदा होते हैं। ये दोनों इमोशनल हैं। हमारे शरीर में ऐसे केन्द्र हैं जहां से नाना प्रकार की प्रवृत्तियों का संचालन होता है। संवेग का संचालन शरीर से होता है। सारे संवेग हाइपोथेलेमस में पैदा होते हैं। भय का भी यही स्थान है। अभय का दान वही व्यक्ति दे सकता है जिसने स्वयं अभय प्राप्त किया है और जिसमें से अभय की तरंगें निकलती हैं। वे तरंगें आस-पास के सारे वातावरण में अभय का विकिरण करती हैं। वही व्यक्ति अभय हो सकता है, जो अभय का दान करता है। वही व्यक्ति अभय का दान कर सकता है, जो अभय होता है। भय बहुत बड़ा संवेग है। इससे छुटकारा पाना बहुत आवश्यक है। अभय के द्वारा ही भय को समाप्त किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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