SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभय की अनुप्रेक्षा २२३ चौकीदार, केवल हम रहते हैं। मकान का मालिक सुख की नींद सोता है। वह जागरण नहीं करता, क्योंकि उसके मन में भय नहीं है कि मुनि उस धन को निकाल लेंगे। उसके मन में डर नहीं है। वह जागता नहीं, सुख से सोता है। जागना क्यों पड़ता है ? जागना तब पड़ता है जब पीछे भय हो। जहां भय नहीं है, वहां निश्चितता है। जब भय की स्थिति आ गई हो तो उससे डरना नहीं चाहिए। पहले यह विवेक अवश्य रखना चाहिए कि कोई खतरा सहसा उत्पन्न न हो। परन्तु जब खतरा पैदा हो ही गया तो व्यक्ति की प्राण-ऊर्जा इतनी सशक्त होनी चाहिए कि वह निडर होकर उस खतरे का सामना कर सके। इस प्रकार करने से खतरा आता है और चला जाता है, व्यक्ति का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाता। दुनिया में सब उसे सताते हैं जो कमजोर है, सशक्त को कोई नहीं सताता। अभय की निष्पत्ति-वीतरागता __ जब सहिष्णुता सधती है तब अभय घटित होता है। समूचे धर्म का रहस्य है अभय। धर्म की यात्रा का आदि-बिन्दु है अभय और अन्तिम बिन्दु है अभय। धर्म का अथ और इति अभय है। धर्म अभय से प्रारंभ होता है और अभय को निष्पन्न कर कृतकृत्य हो जाता है। वीतरागता का आरम्भ अभय से होता है और वीतरागता की पूर्णता भी अभय में होती है। जो व्यक्ति भयमुक्त नहीं होता वह कभी धार्मिक नहीं बन सकता, कायोत्सर्ग नहीं कर सकता। कायोत्सर्ग का अर्थ है-शरीर की चिन्ता से मुक्त हो जाना। अभय का यह पहला बिन्दु है। शरीर की चिन्ता से मुक्त हो जाना, सरल-सी बात लगती है, परन्तु यह इतनी सरल बात नहीं है। शरीर के प्रति बने हुए भय से छुटकारा पा लेना सरल बात नहीं है। 'ममेदं शरीरम्'-यह शरीर मेरा है जिस क्षण में यह स्वीकृति होती है, उसी क्षण में भय पैदा हो जाता है। यह भय की उत्पत्ति का मूल कारण है। शरीर का ममत्व भय उत्पन्न करता है। ममत्व और भय दो नहीं हैं। जहां ममत्व है, वहां भय है और जहां भय है, वहां ममत्व है। ममत्व को छोड़ना भय-मुक्त होना है और भय-मुक्त होने का अर्थ है ममत्वहीन होना। . लक्ष्य की निश्चितता से जैसे आत्म-बल बढ़ता है, वैसे निर्भयता भी बढ़ती है। निर्भयता अहिंसा का प्राण है। भय से कायरता आती है। कायरता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy