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अमूर्त चिन्तन
होने पर आदमी यह नहीं मानेगा कि सुख-दुःख देने वाला स्वयं के अतिरिक्त कोई दूसरा व्यक्ति है। आदमी फिर यही सोचेगा, मैंने ऐसा ही कोई कृत्य किया है, कोई ऐसा आचरण किया है, उसी का यह परिणाम सामने आ रहा है। पूरी दृष्टि अपनी सीमा में चली जाएगी। भावना-योग एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है परिवर्तन की, दृष्टि को बदलने की।
प्रश्न होता है, क्या एक बात को बार-बार दोहराने से संस्कार धुल जाता है ? नाजियों का यह प्रसिद्ध सूत्र था-एक झूठ को हजार बार दोहराओ वह सच हो जाएगा। हजार बार दोहराने से एक झूठ सच बन सकता है तो क्या हजार-लाख बार दोहराने से सच सच नहीं बनेगा ? आवृत्ति का भी अपना महत्त्व है। आज विज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि सूक्ष्म तथ्य को पकड़ने के लिए आवृत्ति पर ही ध्यान देना होता है। किस-किस फ्रीक्वेन्सी में क्या-क्या पकड़ा जा सकता है, वह जानता है।
अमेरिका के राष्ट्रपति लिंकन की जन्म-शताब्दी मनाई जाने वाली थी। लिंकन से मिलते-जुलते व्यक्ति को उसकी भूमिका निभाने के लिए चुना गया। उसने वर्ष भर यात्रा की। लिंकन का पार्ट अदा किया। वह संस्कार इतना सघन हो गया कि वह अपने आपको लिंकन समझने लगा। वर्ष पूरा हो गया, किन्तु उसका सपना नहीं टूटा। लोगों ने बहुत समझाया कि तुम लिंकन नहीं हो। लेकिन वह किसी तरह इसको स्वीकार करने के लिए राजी नहीं हुआ। कुछ लोगों ने कहा, जैसे लिंकन को गोली मारी वैसे ही इसको भी गोली मार दो। अन्ततोगत्वा एक मशीन का निर्माण किया गया, जो असल को प्रकट कर सके। वह मशीन पर खड़ा हुआ। उसने सोचा, सब कहते हैं-तू लिंकन नहीं है, कह दूं और उससे पीछा छुड़ा लूं। वह बोला-मैं लिंकन नहीं हूं, किन्तु मशीन ने बताया कि तू लिंकन है, वह फेल हो गई। भावना का इतना गहरा असर हुआ कि लिंकन न होते हुए भी लिंकनाभास अवचेतन में पैठ गया। इसलिए यह अपेक्षित है कि साधक भावना के साथ-साथ सचाई के दर्शन से पराङ्मुख न हो। वह ध्यान के साथ-साथ भावना का अनुशीलन करता रहे। मंत्र-सिद्धि कैसे ?
' समूचा आकाश ध्वनियों के प्रकंपनों से भरा पड़ा है। पर हमारा कान या अन्य यंत्र सभी ध्वनियों को नहीं पकड़ पाते। सभी अमुक-अमुक ध्वनि-प्रकंपनों को ही पकड़ पाते हैं। यह भी आवृत्ति के सिद्धांत पर ही फलित होता है। तरंग-दैर्ध्य और तरंगों की ह्रस्वता, लम्बी तरंगें और छोटी तरंगें,
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