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सम्प्रदाय निरपेक्षता अनुप्रेक्षा
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जन्मे हैं और उसी में उन्हें मरना है। साम्प्रदायिक विग्रह से वह पवित्र मिट्टी कलंकित होती है, राष्ट्र शक्तिहीन होता है और व्यक्ति का मन अपवित्र होता है, इसलिए साम्प्रदायिक एकता पर विशेष बल दिया जाए। साधना और सम्प्रदाय
__ साधना और सम्प्रदाय का परस्पर क्या संबंध है, यह प्रश्न भी काफी जटिल है। सम्प्रदायों का जन्म तो इसलिए हुआ था कि साधना में वे साधकों का सहयोग करें। किंतु कालान्तर में सांप्रदायिक अभिनिवेश बढ़ता गया, उसमें साधना पक्ष गौण होता गया और एक-दूसरे से उत्कृष्ट दिखाने का मनोभाव मुख्य होता गया। साम्प्रदायिक कट्टरता ने कलह के बीज बोये और जन-जन में प्रेम की भावना भरने वाला धर्म फूट और संघर्ष का कारण बन गया। आज लोगों का मानस पुनः प्रबुद्ध हो रहा है। इस स्थिति में यह आवश्यक है कि सम्प्रदाय अपने मुख्य प्रयोजन की ओर ध्यान दे। वे साधक की साधना में सहयोगी बनें, बाधक न हों। सम्प्रदाय को गौण स्थान देते हुए साधना को मुख्य स्थान दिया जाए। जैसे नौका मनुष्य को पार पहुंचाकर कृतकृत्य हो जाती है, वैसे ही सम्प्रदाय भी साधक को साधना की एक भूमिका तक पहुंचाकर कृतकृत्य हो जाए। साम्प्रदायिक आग्रह ने न साधना को तेजस्वी होने दिया और न साधक भी उसके अभाव में लक्ष्य तक पहुंच पाए हैं।
आचार्य भिक्षु की सत्य-शोध की वृत्ति बहुत प्रबल थी। वे सत्य के प्रति बहुत विनम्र थे। इसीलिए उनमें आग्रह नहीं पनपा। उन्होंने अपनी मर्यादाओं को अन्तिम नहीं माना। उन्हें भविष्य पर भरोसा था। इसीलिए उन्होंने मर्यादाओं के परिवर्तन और संशोधन की कुंजी भावी आचार्यों के हाथों में दे दी। उनकी तप:पूत चर्या, शुद्धनीति, आचार-निष्ठा, सद्भाव, संख्या की अपेक्षा गुणवत्ता को मूल्य देने की प्रवृत्ति, अनुशासन-प्रवणता आदि गुणों ने एक ऐसा वातावरण तैयार किया कि हजारों-हजारों लोगों के लिए उनकी मर्यादाएं आप्त-वचन जैसे बन गयीं।
आचार्य भिक्षु ने सेवा और जीवन-निर्वाह का आश्वासन-इन दो तत्त्वों पर इतना बल दिया कि व्यक्ति मर्यादाओं के प्रति अपना सर्वस्व विसर्जित करके भी कठिनाई का अनुभव नहीं करता।
संघ की ओर से आश्वासन तथा संघ के सदस्य की ओर से समर्पण-ये दोनों दुर्लभ बातें आज भी तेरापंथ की विशेषता की प्रतीक हैं।
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