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अमूर्त चिन्तन
धर्म के क्षेत्र में आचार्यश्री ने क्रांति की है। उन्होंने अपने शिष्यों में निष्पक्षता व तटस्थता की बात जंचा दी, जिससे उनमें सम्प्रदाय की बू नहीं आ सकती।
दर्शन के क्षेत्र में भी नए मूल्यों को प्रस्तुत किया है। लाखों-लाखों लोगों से सम्पर्क बना है। इस दिशा में आचार्यश्री और उनके शिष्यों ने भागीरथ प्रयत्न किया है। परिणाम यह आया कि जो नजदीक थे वे दूर हो गये और जो दूर खड़े थे वे निकट आ गए। हम जानते हैं, महापुरुष कभी लकीर पर नहीं चलते। परम्परा का अनुगमन करने वाले सब होते हैं, परन्तु परम्परा में अपना योग देकर उसको विकसित करने वाले बिरले ही होते हैं। आचार्य भिक्षु, जयाचार्य और आचार्य तुलसी उन महापुरुषों में हैं जिन्होंने अपने कर्तृत्व से परम्पराओं की नई लकीरें खींची हैं। साम्प्रदायिक वैमनस्य
मनुष्य जन्मना मनुष्य का शत्रु नहीं है। एक ही पेड़ की दो शाखाएं परस्पर विरोधी कैसे हो सकती हैं ? फिर भी यह कहा जाता है कि धर्म-सम्प्रदाय मनुष्यों में मैत्री स्थापित करने के लिए प्रचलित हुए हैं। उनमें जन्मना शत्रुता नहीं है, फिर मैत्री स्थापित करने की क्या आवश्यकता हुई ? मैं फिर इस विश्वास को दोहराना चाहता हूं कि मनुष्य मनुष्य में स्वभावत: शत्रुता नहीं है। वह निहित स्वार्थ वाले लोगों द्वारा उत्पन्न की जाती है। उसे मिटाने का काम धर्म-सम्प्रदायों ने प्रारम्भ किया, किन्तु आगे चलकर वे स्वयं निहित स्वार्थ वाले लोगों से घिर गए, और मनुष्य को मनुष्य का शत्रु मानने के सिद्धांत की पुष्टि में लग गये। इस चिन्तन के आधार पर मुझे लगता है कि साम्प्रदायिक समस्या का मूल भी अहं और स्वार्थ को छोड़कर अन्यत्र नहीं खोजा जा सकता। इसलिए साम्प्रदायिक वैमनस्य की समस्या को सुलझाने के लिए भी अहं और स्वार्थ का विसर्जन बहुत आवश्यक है। साम्प्रदायिक एकता
हिन्दुस्तान सम्प्रदाय-निरपेक्ष जनतन्त्री राष्ट्र है। यह दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र है। यहां हर व्यक्ति वाणी, लेखन, विचार-प्रकाश और धार्मिक उपासना करने में स्वतन्त्र है। यहां विविध भाषाएं, विविध जातियां और विविध धर्म-सम्प्रदाय हैं। किन्तु इन विविधताओं के होने पर भी सब एक हैं। वे एक इस अर्थ में हैं कि वे सब भारतीय हैं। वे भारत की पवित्र मिट्टी में
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