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सम्प्रदाय निरपेक्षता अनुप्रेक्षा
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आपको सर्वथा बचा सकें। इस दिशा में वीतराग लोगों ने भी प्रयास किया कि दुनिया भी अच्छी बने, जनता भी अच्छी बने। अच्छे लोगों का संघ बने, समाज बने, समुदाय बने। यदि ऐसा नहीं बनता है तो विकट स्थिति पैदा हो जाती है। वीतराग को भी जीवन जीना होता है। मन पर प्रभाव चाहे न आए, किन्तु उसके शरीर पर तो प्रभाव पड़ेगा ही। वह मानसिक विचारों से बीमार नहीं पड़ेगा किन्तु दुनिया के वातावरण से तो बीमार बन सकता है। खान-पान से तो बीमार बन सकता है। जिस दुनिया के बीच में जीना है, जिस जनता के मध्य जीना है, उसको वीतरागता की दिशा में प्रेरित करना, यह वीतराग का भी धर्म और कर्तव्य होता है। इसीलिए संघ-सम्प्रदाय कोई बुरी बात नहीं है। यह बहुत आवश्यक है। किन्तु केवल संघ, संगठन और सम्प्रदाय में ही हमारी दृष्टि अटक जाए, तो यह बुरी बात है। हमें संघ और सम्प्रदाय में जो सचाई है, जो सत्य है, उसका अवतरण करना है, निश्चयदृष्टि का आलम्बन लेना है, अध्यात्म को विकसित करना है। सत्य बिना निश्चय और अध्यात्म के संगठन और संघ मात्र हड्डियों का ढांचा रह जाएगा। उसमें प्राण नहीं रहेगा। उसमें तेजस्विता नहीं रहेगी। उसमें चैतन्य नहीं रहेगा।
__ इन दोनों वृत्तियों की सापेक्षता हमारा मार्ग बन सकती है। न अकेला व्यक्ति मार्ग बन सकता है और न कोरा समाज मार्ग बन सकता है। दोनों का योग ही हमारे विकास की यात्रा का मार्ग बन सकता है। सत्यग्राही दृष्टिकोण का चरण और आगे बढ़ता है तो वहां ज्ञान और क्रिया का समन्वय होता है। किसने कहा कि दर्शन जीया नहीं जा सकता। मैं सोचता हूं कि जो दर्शन जीया नहीं जा सकता, वह हवाई उड़ान होता है, आकाशी कल्पना होती है, यथार्थ नहीं होता। वही दर्शन वास्तविक हो सकता है जो जीया जा सकता है। वह आदर्श किसी काम का नहीं, जो व्यवहार में न आ सके। और वह व्यवहार किसी काम का नहीं, जिससे आदर्श तक न पहुंचा जा सके। आदर्श और व्यवहार दोनों का योग होना चाहिए।
आचार्यश्री ने तेरापंथ की सीमा को बहुत विस्तार दिया है। उन्होंने धर्म को युग की वेदी पर खड़ा कर दिया, जिससे सारे सम्प्रदाय लाभान्वित हुए. हैं। आचार्यश्री जब दक्षिण यात्रा पर थे तब लोगों ने कहा-हमारे यहां अनेक आचार्य आए हैं, पर मानवता की बात करने वाले पहले आचार्य आए हैं। सब धर्मगुरु अपने-अपने संप्रदाय की बात करते हैं, परन्तु सम्प्रदाय से दूर रहकर मानवता की बात करने वाले आचार्य आप हैं। वहां कोई भी जैन नहीं था फिर भी नहीं लगता था कि वे जैन नहीं हैं।
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