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समन्वय अनुप्रेक्षा
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दिया उसने बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात दी। जितना सत्य पिण्ड में है, उतना ब्रह्माण्ड में है, जितना ब्रह्मांड में है, उतना पिण्ड में है।
बहुत विलक्षण है हमारा जीवन और बहुत विलक्षण है हमारा शरीर । इस शरीर में अनन्त सत्य छिपा हुआ है। स्थूलदृष्टि से लगता है-ये पैर हैं और ये आंखें हैं। यथार्थ में ये दो कहां हैं ? यदि वास्तव में ये दो हों तो आयुर्वेद के आचार्यों का यह कथन मिथ्या हो जाता कि यदि आंख बीमार हो तो पैर की अंगुलियों पर दवा लगाओ, आंख ठीक हो जाएगी। बहुत विचित्र लगता है यह कथन । किन्तु यह यथार्थ से परे नहीं है। मुंह पर जैसे आंखें हैं, वैसे ही पैरों में भी हैं। पिच्यूटरी ग्लांड यदि भृकुटि के बीच में है तो वह पैर के अंगूठे में भी है। जितने ग्लांड या अन्य अवयव ऊपर हैं, उतने ही नीचे पैरों में हैं। आज ये सब विज्ञान द्वारा सम्मत हैं। सारा शरीर एक है, जुड़ा हुआ है। इसी सिद्धांत के फलस्वरूप एक्यूपंक्चर और एक्यूप्रेसर चिकित्सा प्रणालियों का विकास हुआ है। समूचे शरीर में संवादी अंग हैं। पैर का दर्द है। रीढ़ की हड्डी को दबाओ, वह दर्द मिट जाएगा। पैर के अंगूठे को दबाते ही सिर दर्द मिट जाता है । दबाने की विधि होती है, उसका ज्ञान आवश्यक है। दृष्टि-परिवर्तन का हेतु
अनेकांत जीवन की एक प्रशस्त पद्धति है। उस पद्धति का प्रारम्भ होता है दृष्टि-परिवर्तन के द्वारा। दृष्टि जब सम्यक् नहीं होती तब हमारी धारणाएं सूक्ष्म और स्थूल दोनों जगत् के द्वारा छनकर नहीं आतीं। जब तक हमारा ज्ञान व्यक्त और अव्यक्त-दोनों पर्यायों के समन्वय से नहीं होता तब तक हम सही निर्णय नहीं ले पाते और आपदाओं से बचना तब सम्भव नहीं होता। वस्तु का स्वभाव बहुत बड़ा सत्य है। इसकी हम अवहेलना न करें। उसे समझने का प्रयत्न करें। कोई भी व्यक्ति वस्तु-सत्यों को उलटकर, उन नियमों के विपरीत चलकर सुखी नहीं बन सकता। सुखी और शांत जीवन वही जी सकता है जो वस्तु-सत्यों को मानकर चलता है, न कि अपनी धारणाओं के अनुसार सत्य को ढालने का प्रयत्न करता है। प्राय: होता यह है कि मनुष्य वैसा बनना नहीं चाहता किन्तु आदर्श को अपने अनुकूल ढालने का प्रयत्न करता है, उसे नीचे उतार लेना चाहता है। कोई भी व्यक्ति भगवान् की ऊंचाई तक पहुंचना नहीं चाहता, किन्तु भगवान् को अपने धरातल पर ले आना चाहता है। यही विकृति है, यही मिथ्या-दृष्टिकोण है। यदि यह दृष्टिकोण बदल जाए और सत्य को अखण्ड और शाश्वत नियम मानकर चलें तो फिर दु:खी होने का कोई रास्ता ही नहीं बचता।
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