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अमूर्त चिन्तन
अनेकांत की दृष्टि का फलित समन्वय और सद्भाव है। इसके लिए समन्वय के पांच सूत्रों का अधिक-से-अधिक प्रसार किया जाए। पांच सूत्र इस प्रकार हैं१. मण्डनात्मक नीति बरती जाए। अपनी मान्यता का प्रतिपादन
किया जाए। दूसरों पर मौखिक अथवा लिखित आक्षेप न किया जाए।
दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता रखी जाए। ३. दूसरे सम्प्रदाय और उसके अनुयायियों के प्रति घृणा और
तिरस्कार की भावना का प्रचार न किया जाए। ४. कोई सम्प्रदाय-परिवर्तन करे तो उसके साथ सामाजिक बहिष्कार
आदि अवांछनीय व्यवहार न किया जाए। ५. धर्म के मौलिक तथ्यों-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह को जीवन-व्यापी बनाने का सामूहिक प्रयत्न किया
जाए। स्यात् शब्द का नया अर्थ
केवली, भगवान् या सर्वज्ञ अनन्त सत्य को जान लेते हैं, किन्तु उनमें भी यह क्षमता नहीं है कि वे अनन्त सत्य को कह सकें। यह असंभव है। कोई महान् व्यक्ति, ज्ञानी व्यक्ति, दस-बीस-पचास पर्यायों की अभिव्यक्ति कर सकता है। पूरे सत्य को वह कभी नहीं कह सकता। उसके द्वारा प्रतिपादित सत्य के कुछेक पर्यायों को पूर्ण सत्य मानकर अवशिष्ट पर्यायों को हम अस्वीकार कर देते हैं, नकार देते हैं, तब सत्य से हटकर असत्य की ओर चले जाते हैं। हमारा प्रस्थान असत्य की दिशा में हो जाता है। इसलिए अनेकांत ने एक युक्ति प्रस्तुत की। उसने कहा-'तुम असत्य से बच सकते हो यदि तुम ‘स्यात्' शब्द लगा लो। वह तुम्हें असत्य से बचा लेगा। स्यात्' का यहां भावार्थ होगा-'मैं पूर्ण सत्य कहने में असमर्थ हूं। सत्य का एक पर्याय प्रस्तुत कर रहा
प्राचीन साहित्य में 'स्यात्' शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। मैं उसे नए अर्थ में प्रस्तुत करना चाहता हूं। 'स्यात्' शब्द का अर्थ है-अपनी अक्षमता का स्वीकार, भाषा की अक्षमता की स्वीकृति। 'स्यात' शब्द का प्रयोग करने वाला व्यक्ति यह स्वीकृति पहले ही दे देता है कि मैं जो कह रहा हूं उसे पूर्ण सत्य मत मान लेना, उसे निरपेक्ष सत्य मत मान लेना, अखण्ड सत्य मत मान लेना। मैं केवल सत्य के एक पर्याय का, एक अंश का प्रतिपादन कर रहा हूं।
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