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समन्वय अनुप्रेक्षा
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लेता है, समानता को छोड़ देता है। इसीलिए विवाद, सम्प्रदायवाद, संघर्ष आदि होते हैं। स्थूल पर्यायों के आधार पर ये सब घटित होते हैं। बाह्य जगत् में भिन्नता अधिक है, समानता कम और अन्तर जगत् में समानता अधिक है, भिन्नता कम है। हम ध्यान के इस उपक्रम के द्वारा यही करना चाहते हैं कि हमारी ऐसी दृष्टि विकसित हो जाए, प्रज्ञा इतनी निर्मल हो जाए कि हम असमानता के नीचे छुपी हुई समानता को देख सकें।
____ कबीर का बेटा कमाल घास काटने जंगल में गया। सांझ तक घर नहीं लौटा। कबीर चिन्तित हो गए। वे उसे खोजते-खोजते जंगल में पहुंचे। उन्होंने देखा-कमाल पागल की तरह खड़ा है निष्क्रिय । वह घास को देख रहा है, काट नहीं रहा है। कबीर ने उसे झकझोरा । पूछा-क्या कर रहे हो? सूर्य अस्त हो चुका है। घास काटा ही नहीं ? कमाल बोला-किसे काटूं ? क्या अपने आपको काटूं ? जैसी प्राणधारा मेरे भीतर प्रवाहित हो रही है, वैसी ही प्राणधारा इस घास के भीतर प्रवाहित होते हुए देख रहा हूं। अब कैसे काटूं ? किसे काटूं ? अब कमाल घास नहीं काट सकता।
इस समानता की अनुभूति को भगवान् महावीर ने इस प्रकार अभिव्यक्ति दी-'तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि'-पुरुष ! तू जिसे मारना चाहता है, वह तू ही है। इसी सन्दर्भ में समानता की अनुभूति के उनके ये वाक्य मननीय हैं--
तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेव्वं ति मन्नति । जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। तुमंसि नाम सच्चेव जं परितावेयव्वं ति मन्नति। जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। तुमंसि नाम सच्चेव जं परिघेतव्वं ति मन्नति । जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्दवेयव्वं ति मन्नति। जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है।
यह परम सत्य की अनुभूति अनेकांत के आधार पर हुई है। अनेकांत को वही स्वीकार कर सकता है जो राग-द्वेष से विमुक्त है। जिस व्यक्ति में राग-द्वेष की प्रचुरता है वह अनेकांत को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। वास्तव में अनेकांत ध्यान का दर्शन है, साधना का दर्शन है। जिस व्यक्ति की चेतना निर्मल होती है, राग-द्वेष से विमुक्त होती है, उसमें अनेकांत की दृष्टि जागती है, सत्य की प्रज्ञा जागती है, अन्यथा नहीं।
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