________________
१४०
अमूर्त चिन्तन
कि हमारे सारे निर्णय, सारी मान्यताएं, सारी धारणाएं और सिद्धांत स्थूल नियमों के आधार पर बनते हैं। उनको हम शाश्वत नियम न मानें, यथार्थ न माने, सूक्ष्म जगत् के नियम न मानें। निश्चय और व्यवहार
. अनेकान्त ने सूक्ष्म और स्थूल-दोनों नियमों की व्याख्या की और दो कोण हमारे सामने प्रस्तुत कर दिए। एक कोण है-निश्चय नय और दूसरा कोण है-व्यवहार नय। यदि सूक्ष्म सत्यों को जानना हो तो निश्चय नय का सहारा लो और स्थूल नियमों को जानना हो तो व्यवहार नय का सहारा लो। जब ये दोनों नय सापेक्ष होते हैं, समन्वित होते हैं, तब हम इस सचाई तक पहुंच जाते हैं कि भेद और अभेद भिन्न-भिन्न नहीं, किन्तु समन्वित रहते हैं। अस्तित्व और नास्तित्व भिन्न नहीं होते, किन्तु समन्वित रहते हैं। समन्वय की एक बड़ी धारा हमारे सामने प्रवाहित हो जाती है। इसी समन्वय की धारा के आधार पर मध्यकाल में जैन आचार्यों ने बहुत बड़ा काम किया और प्रत्येक दर्शन के साथ समन्वय का मार्ग प्रशस्त किया।
एक जैन आचार्य ने लिखा है कि आत्मा और पुद्गल में कोई अन्तर नहीं है। केवल एक धर्म का अन्तर है। आत्मा चेतन है, पुद्गल चेतन नहीं है। आत्मा में अनन्त धर्म हैं और पुद्गल में भी अनन्त धर्म हैं। उन अनन्त धर्मों में केवल एक धर्म-चेतन का अन्तर है और कोई अन्तर नहीं। बहुत ही महत्त्वपूर्ण कथन है। जब अनन्त धर्मों में सब मिलते हैं, केवल एक नहीं मिलता, तो समानता है ही सबकी। बहुत सारी समानता है। अन्तर डालने वाला एक ही मुख्य गुण होता है। समानता की अनुभूति
गुण दो प्रकार के होते हैं--सामान्य गुण और विशेष गुण। सामान्य गुण चेतन और अचेतन सब में समानरूप से मिलता है। आत्मा चेतन होते हुए भी अमूर्त है और अचेतन पदार्थ भी अमूर्त्त होते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अचेतन हैं, पर हैं अमूर्त। इस दृष्टि से चेतन आत्मा और अचेतन धर्मास्तिकाय समान हैं। दोनों पुद्गलातीत और अभौतिक हैं। धर्मास्तिकाय द्रव्य है पर भौतिक नहीं है, अभौतिक है। हम बहुत बार कह देते हैं कि आत्मा अभौतिक है। परन्तु क्या धर्मास्तिकाय अभौतिक नहीं है ? दोनों (आत्मा और धर्मास्तिकाय) में बहुत बड़ी समानता है। समानता अधिक है। असमानता कम है। जो स्थूल पर्याय को पकड़ता है वह असमानता को पकड़
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org