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अमूर्त चिन्तन
नारी का कर्तव्य-बोध
__सबसे पहले हम यह निर्धारण करें कि हमें समाज को कैसा बनाना है इसके पश्चात् हम सबसे पहले स्त्रियों को प्रबुद्ध करें और उन्हें एक ऐसा संकल्प दें कि उन्हें कैसे पुत्र पैदा करना है ? यह बहुत ही कार्यकारी बात होगी। माता के मन में जो संकल्प होता है, जैसा पुत्र वह चाहती है, यदि संकल्प बलवान् होता है तो वैसा ही पुत्र उसे प्राप्त हो जाता है। दुनिया में जितने भी शक्तिशाली पुरुष हुए हैं, उनकी शक्ति के पीछे माता के दृढ़ सकंल्प ने भी काम किया है। जो माता गर्भ से पूर्व या पश्चात् अच्छे संकल्प करती है, अच्छे व्यवहार करती है, अच्छा साहित्य पढ़ती है, अच्छे स्वप्न देखती है, उसका पुत्र शक्तिशाली होता है। जिसकी माता हीन भावना से ग्रस्त होती है, बुरे भाव रखती है, बुरे स्वप्न देखती है, उसका पुत्र कभी शक्तिशाली नहीं होता। वह डरपोक ही नहीं, अंगहीन भी होता है।
महिलाओं में भी शक्ति होती है। वे बड़े-बड़े कार्य कर सकती हैं। आचार्यश्री की यात्रा के माध्यम से हमने देखा कि कुछेक महिलाओं ने व्यवस्थित शिक्षा-संस्थान चलाने में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। महिलाए कार्य कर सकती हैं-इनमें मुझे संदेह नहीं है। वे अपनी शक्ति को इस दिशा में नियोजित करें तो आश्चर्यकारी कार्य संपन्न हो सकते हैं। वे इस बात में न उलझें कि स्त्री दुर्बल है या पुरुष दुर्बल है। कोई दुर्बल नहीं है। दुर्बलता और सबलता का कथन सापेक्ष होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में नारी को राक्षसी कहा गया है। क्या पुरुष राक्षस नहीं होता ? पुरुष भी राक्षस होता है और नारी भी राक्षसी होती है। पुरुष भी देवता होता है, नारी भी देवी होती है। जहां नारी को राक्षसी कहा गया वहां यह भी कहा गया, 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:'। यह सब सापेक्ष कथन है, इतिहास में प्राप्त होता है कि अतीत में भारतीय समाज में दो प्रकार की व्यवस्थाएं प्रचलित थीं। एक थी पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था और दूसरी थी मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था। पुरुष प्रधान व्यवस्था थी तो नारी प्रधान व्यवस्था भी थी। आज भी सीमांत प्रदेशों में ऐसी जातियां हैं जहां स्त्री प्रधान होती है। पुरुष रसोई बनाता है, सन्तान का पालन करता है। नारी बाजार जाती है, सौदा लाती है। पुरुष चूंघट निकालता है, नारी खुले मुंह मुक्त विचरण करती है। ये सब देश-काल सापेक्ष स्थितियां हैं। यदि इन्हें हम शाश्वत सत्य मान लें तो बड़ी भ्रांति होगी। हमें सापेक्ष ही मानना चाहिए। हमें यह सोचना चाहिए कि हमें क्या बनना है, हमें क्या करना है ? इस प्रश्न को सुलझाने से पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि
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